१५६ ] स्वाराज्य सिद्धिं
इस निश्चय रूप बाध की अवधि रूपं ब्रह्म रंज्जु, शुक्ति,
आकाश, चन्द्रमा आदि के सदृशं निंत्य ही है । (निःसंगत्वा
विरोधात्) ब्रह्म गत नि:संगता का संत्यरूपता के संसाथ कोई
भी विरोध नहीं है। अर्थ यह है, जैसे नीलत्व आदि कल्पित
होमे से असंग प्राकाश आदिक सत्य हैं तैसे ही प्रष्पंच कल्पित
होने से प्रसंग ब्रह्म भी सत्य है । (सकलगततया) सर्वगत
होने से भी ब्रह्म नित्यं है, क्योंकिं अनित्य वस्तु सर्वगत नहीं
देखी। यहां पुमसंक्ति दोष की शंका नहीं करनी चाहेियै, क्योंकि
यहां अनेक श्रुतियों से हेतुओं का संग्रहं किया गया है।
(आत्मत्वत: ) ब्रह्म सर्व कॅलादिकों का भी आत्मा है अर्थात्
काल, दिशा आदिक पदार्थ कां ब्रह्म ही अधिष्ठानि होने से
आत्मा है जैसे सर्प दंड श्राविकों का रज्जु श्रांत्मा है। अंतः
ब्रह्म नित्य है । (साक्षिभावात्) आत्मा रूष ब्रह्म का भी यदि
कोई और साक्षी माना जावेगा तो श्रनवस्थां वौष प्राप्त होगा,
क्योंकि साक्षीरहित ब्रह्म का अभाव सिद्ध नहीं होता । इंस
प्रकार सर्व प्रपंच के भावाभाव का साक्षी होने से भी ब्रह्म नित्य
है । (अन्य द्रष्टुर्निषेधात् स्फुटवचनशतैः) ‘सलल एको द्रष्टा
ऽद्वत:’ ‘नातोऽन्यदस्तिद्रष्टा' इत्यादिक स्पष्ट रूप से कहे श्र ति
वचनों ने ब्रह्मात्मा से भिन्न द्रष्टा का अभाव ही कहा है । इससे
भी श्रात्मारूप ब्रह्मात्मा नित्य ही है क्योंकि यदि द्रष्टा का भी
अभाव होगा तो जगत् में अंधता ही प्राप्त हो जावेगी । अथवा
‘स्फुट वचन शतैः’ अन्य सैकड़ों स्पष्ट श्रुति प्रमाण होने से इसंकों
भिन्नहेतु मान सकते हैं। भाव यह है कि सत्यादिपद् घटितश्रुतियोंसे
भी ब्रह्म की सत्यता ही निश्चित है अर्थात् 'सत्यं ज्ञानमंनंत ब्रह्म
नित्यं सर्वगतं सूक्ष्मम् सत्यस्य सत्यम् अमृतं विदित्वा ।' इत्यादिक
वेद् वचनों से भी ब्रह्म सत्यरूप है । (स्वानुभूत्याच ) तथा