पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१४३

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प्रकरणं १ श्लो० ३

स्वाराज्य सिद्धिः}}

उक्त दृष्टांत से सृष्टि को कहने वाले वेद वाक्य उत्पादकत्व, पालकत्व, संहारकत्व, सर्वज्ञत्व आदिक विशेषणों से युक्त किसी सविशेष ईश्वर का लक्ष नहीं कराते परन्तु, ये सब निर्विशेष पर ब्रह्म के ही लक्षक हैं। बात यही है कि लक्षणा महा वाक्यों के पदों में नहीं होती संपूर्ण वाक्य में लक्षणा होती है, यह दिख लात हैं हरन्नतन्न छन

तत्त्वमर्थवदत्र यद्यपि नान्वयानुपपत्ति धीनांप्य

भिन्न पदार्थकत्व मतः पदेषु न लक्षणा । भेद

संगतिकानि तानि समेत्य सत्य विदद्वयं तत्प

राणि हेि लक्षयेयुरुपक्रमाद्यनुसारतः ॥१७॥

तत् और त्वं पदाथों के समान यहां सृष्टि वाक्यों में लक्षणा के लिये अवकाश नहीं है, तथा अभिन्न पदार्थकत्व भी नहीं है, इसीसे पद में लक्षणा नहीं है। परस्पर भेद संबंध से वे सब वाक्य मिलकर उपक्रम उपसंहार आदि षट् लिंगों के अनुसार सत् चिद् अद्वय रूप ब्रह्म का ही बोधन करते हैं ॥१७॥ (यद्यपि तत्त्वमर्थवत्) यद्यपि जैसे तत्त्वमसि महावाक्य में स्थित तत् और त्वं पदार्थो में लक्षणा के लिये स्थान है वैसे ही (अत्र नान्वयानुपपत्तिधीइमानि भूतानि जायंते’

) 'यता वा

इत्यादि सृष्टि वाक्यों में भी अन्वयानुपपत्ति लक्षणा के लिये __