पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१४०

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स्वाराज्य सिद्धिः}}

आदिकों की निवृत्ति के लिये की है। इस प्रकार कल्पित सत् श्रादिक अंशों से ब्रह्म में सामान्य विशेष रूप दोनों अंश बन जाने से जगत् की अधिष्ठानता भी संभव है। इस अर्थ को अब दृष्टांत पूर्वक समझाते हैं (शुक्तीदन्ता इव) जैसे शुक्तिगत यह श्रअंश रजत के साथ व्याप्त होता है और रजत रूप होकर यह रजत है । इस प्रकार प्रतीत होता है, वैसे ही (सत्ता कल्पिते नानुविद्धा ) सक्ता अंश भी कल्पित जगत्पदार्थ के साथ व्याप्त होकर ( कल्पितेन समरसा) कल्पित जगत् के साथ एक रूप होकर (स्फुरति) सत् जगत् के रूप से स्फुरित होती हैं। शुक्ति के सामान्यांश रूप इदम् अंश के दृष्टांत से त्रह्म रूप अधिष्ठान की सत्ता श्रअंश को सामान्य श्रश बतलाया । अब शुक्ति के शुक्तित्व त्रिकोणत्व, नील पृष्टत्वादि रूप विशेष अंश के दृष्टांत से ब्रह्म के चित् श्रऔर सुखत्व आदि अंश को विशेष श्रअंश रूपता बतलाई जाती है । (शुक्तित्वादीव) जैसे अज्ञान से ढकी हुई शुक्ति के शुक्तित्व, त्रिकोणत्व आदिक विशेष अंश प्रतीत नहीं होतेतैसे ही (मायावरण परिभवात् चित्सुखत्वेन भातः) माया से अर्थात् श्रज्ञान रूप प्रावरण से श्रावृत्त होने पर ब्रह्मात्मा की चित् रूपता तथा आनन्दादि रूपता भी भान नहीं होती। भाव यह है कि ब्रह्म के कल्पित, सामान्य और विशेष अंश के मानने पर किसी प्रकार की भी हानि नहीं होती, ऐसा मानने पर सकल इष्ट अर्थ की सिधि ही होती है ॥१४॥ सृष्टि श्रतियां आधिष्टान रूप ब्रह्म को तटस्थ लक्षण द्वारा धोधन करती हैं, इस अर्थ में अब दृष्टान्त'दिखलाया जाता है पृष्टे कोऽस्मिन्समाजे नरपतिरिति यो मत्त