पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१३३

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प्रकरण १ श्लो० ११ [ १२५ क्रिया की प्राप्ति होवेगी । कार्य कारण के अत्यन्त श्रभेद पक्ष में और भी अनेक दोष हैं।॥१०॥ प्रथम भेद का खंडन किया । फिर प्राप्त कार्य कारण के अत्यन्त भेद का भी खंडन किया । इस प्रकार खडन से कार्य की अनिर्वचनीयता सहज ही प्राप्त होती है। इस कार्य के श्रनिर्वचनीय पक्ष में पूर्व उक्त कोई भी दोष प्राप्त नहीं हो सकता । अतः कार्य कारण का भेद प्रत्यय मायिक है, वस्तुत्व की दृष्टि से नहीं है, इस अर्थ को अब दृष्टांत पूर्वक दिखलाया जाता है पिंडावस्था घटत्वे मनसि विमृशतो हेतु कार्यत्व धीःस्यान्मृन्मात्रं यद्वदेकं स्फुटमभिमृशतो नैव हेतुर्न कार्यम् । तद्वन्मायि प्रपंचो मनसिकलयतो ब्रह्म विश्वस्य हेतुः सन्मात्रं त्वेकरूपं पटु परि मृशतो नैव मायी न विश्वम् ॥११॥ पिंडावस्था ही में घटावस्था की मन से कल्पना करते हुए कार्य कारण का भाव उदय होता है। केवल मृत्तिका ही है ऐसे बिचार से न कारण है न कार्य है । इस प्रकार ईश्वर और प्रपंच मन से कल्पित है। विश्व का कारण ब्रह्म है, केवल अद्वैत रूप सन्मात्र है ऐसा दृढ़ निश्चय होने पर न ईश्वर है न विश्व है।॥११॥