पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१३०

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क्योंकि (अपेक्षा बुद्धि क्लप्तिः न ) इसमें इस प्रकार की अपेक्षा बुद्ध हेतु है ऐसा अपेक्षा बुद्धि का निश्चय नहीं होता । यह एक है और यह एक है इस अपेक्षा से द्वित्व तथा यह दो हैं और यह एक है इस अपेक्षासे त्रित्व प्रतीत होता है। (एतत्सकलम्) पृवं उक्त ये सब दूषण ( पृथक्त्वेपि ) पृथक्त्वरूप भेद् में भी (शनैर्योज्यम्) क्रम से लगाना चाहिये, क्योंकि संख्या अर्थात् द्वित्व के समान पृथक्त्व भी अपेक्षा बुद्धि जन्य होने से द्वित्वपक्ष के समान ही है ।५।। मतान्तराभिमत कार्यकारण के वास्तव भेद पक्ष का निरा करण किया जाता है कार्य नान्यन्निदानात्पृथगनधिगमान्नह्य पादान हेत्वोर्वेलचण्यं तथात्वे न भवति समवायादव्य वस्थानुपेतात् । नोचेत् स्वर्णादि कार्ये द्विगुण गुरुतया मूल्य वृद्धि प्रसंगोऽवस्था भेदाद्विभेदे स्थिति गतिभिदया भेदिनः स्युर्नराश्च ।१०।। भेदकी पृथक् ग्राप्ति न होने से उपादान कारणसे कार्य भिन्न नहीं होता । भेद होने पर भी विशेषता नहीं हैं । समवाय से भी व्यवस्था नहीं होगी । कार्य उपादान रूप नहीं हैं तो द्विगुण से कार्य भारी होने से मूल्य में वृद्धि का प्रसंग होगा, अवस्था के भेद मानने में स्थिति और गति से मनुष्यों में भी भेद मानना पड़ेगा . !१०॥