पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१२

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प्रकरणं १ श्लो० ३

स्वाराज्य सिद्धिः}}

है ? (चन्द्रमौलिः) चन्द्र है मस्तक में जिसके श्रौर परमार्थ से. (परमानंद मूर्तिः) वह शिव निरतिशय श्रानंद स्वरूप परब्रह्म रूप । पुनः वह शिव कैसा है ? (अचल तनयां ) पर्वत हैं सुता पार्वती को ( सस्मितम्) मंद संद हास्य के सहित (कौन्त्रमाणु: ) देखता है । कैसी वह पार्वती है ? (गंगा पूरेण ) श्रीगंगा के प्रवाह से (प्रचलित स्टाभ्यः) अत्यन्त कपित जटाओं से (रक्षस्तः ) नीचे को गिरा हुश्रा, जो (भोगींद्रः) शेष है अर्थात् सूर्वराज है, उस सर्पराज से (भीताम्) चकित हुई (आलिंगतीम्) शिव के अंक में, गोद में निमज्जन करती हुई, तथा (प्रणतजनताम्) प्रणामों से अति नम्र हुए मुमुक्षु जन समूह को (लीलापांगैः) स्वाभाविक प्रीति जन्य कटाक्षों से (नन्दयन्) प्रसन्न करती हुई; ऐसी पार्वती को देखला हुआ शिव हम लोगों के अज्ञान के अन्धकार को हरे ॥१॥

मल विक्षेप दोष रहित विवेक वैराग्यादि सर्व साधन संपन्न श्रधिकारी को मूल सहित अनर्थ की निवृति और परमानन्द की प्राप्ति श्रीसत् गुरुओं की कृपा से होती है इस अर्थ को क्रम से सूचन करते हुए आशीर्वाद रूप मंगल.के अन्त र श्रब नम् स्कार रूप प्रसंगलाचरण को रचते हैं -

रूसप्तारं स्मारं जनिमृतिभयं जातनिर्वेद वृत्ति
ध्यसंध्यायं पशुपतिसुमाकान्तसंतर्निषण्णम् ।
पायं पायं सपदि परमान्द पीयूषधारां
भूयोभूवी निजगुरुपद्माम्भोज़ युग्मं नमामि ॥२॥
'

जन्म मरण के भय को बारंबार याद करके उत्पन्न हुई वैराग्यवृत्ति से हृदय में रहे हुएं उमाकान्त पशुपति का