पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/११६

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
108 ]
स्वाराज्य सिद्धिः

कोदंचनादिर्विकारः । सद्भदे स्यादसत्व् सदथ

यदि तदानास्तिभेदः कथंचिद्भेदाभेदौ विरुद्ध

नहि भवति भिदाऽभिन्नवस्तु प्रतिष्ठा ।।३।।

इस कारण सत् स उत्पन्न हुश्रा, सत् म रहन वाला और सत में लीन होने वाला जगत् सत् स्वरूप ही है, जैसे मृत्तिका का घट मृत्तिका ही है, मृत्तिका से भिन्न नहीं है। सत् से भेद हो तो असत् होगा, अभेद हो तो किंचित भेद नहीं होगा और भेदाभेद विरुद्ध धर्म होने से हो नहीं सकता, इससे अभिन्न वस्तु स्वरूपमें भेद नहीं है।॥३॥

(यस्मात् ) जिस कारण से (विश्वम्) यह सर्व जगत्। (सदुत्थम्) सत् रुप ब्रह्म से ही अभिव्यक्त हुआ है अर्थात् ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है, ( सदुपभृतम्) इस काल म भी सत् रूप ब्रह्म से ही धारण किया हुआ है (अथो ) तथा (तत्र लीयते) उस सत् रूप ब्रह्मा में ही लय होजाता है, ( तस्मात् ) इसलिये (सन्मात्रम्) यह सर्व जगत् सत् ब्रह्म रूप ही है (अस्मात् अन्यत् न ) स्वात्मरूप होने से नित्य प्रत्यक्ष रूप सत् ब्रह्म से यह जगत् भिन्न नहीं है। यह अर्थ 'सर्व खल्विदं ब्रह्म तज्जलान्’ इत्यादि वेद के वचनों से स्पष्ट जान लेना । भावार्थ यह है कि जो जिस अधिष्ठान में प्रकट होता है तथा जिसमें स्थित रहता है तथा अन्त में जिसमें लय होजाता है, वह उस अधिष्ठान से भिन्न नहीं होता । जैसे रज्जु सपदिक रज्जु से भिन्न नहीं होते किंतु रज्जु रूप ही होते हैं, वैसे ही यह सर्व जगत् भी ब्रह्म रूप ही