१०६ ]
निर्विकार ब्रह्म माया के विना विश्व की रचना नहीं
कर सकता । वह माया मिथ्या है, जगत् में प्रसिद्ध है
और ब्रह्मज्ञान से उसकी निवृत्ति सुनी है । वह ही अविद्या
है । उसका कार्य मिथ्या होने पर भी होता रहता है, इसी
कारण स यह जगत् मार क पुच्छ क समान ब्रह्म चतन्य
का विवर्त है ।॥२॥
(कूटस्थम्) लोहे के ताड़ने के आधार भूत अहरन की
तरह निर्विकार वा मिथ्याभूत मायाप्रपंच के अधिष्ठान रूप से
स्थित (ब्रह्म ) ब्रह्म ( विश्वं मायया विना न जनयति ) इस
सर्वे जगत् को माया के विना नहीं उत्पन्न करता, किंतु माया से
ही उत्पन्न करता है, अन्यथा, ब्रह्म की कूटस्थता सिद्ध नहीं होगी
(सा च ) और वह माया (मिथ्या) केवल साक्षात् ज्ञान से ही
निवृत्त होने से भ्रम का अनादि उपादान माया मिथ्या है ।
( तस्मिन् शब्द प्रसिद्धेः) कन्याक लाक म भी नट, मदारी
आदि के प्रदर्शित मिथ्या पदार्थो में माया शब्द की प्रसिद्धि है ।
(च ) और पुन: वेद में (परसमधिगमात् तन्निवृत्तिश्रुतेः) ब्रह्म
ज्ञान से माया की निवृत्ति होती है ऐसा श्रुति वचन भी है।
शंका-ज्ञान से अज्ञान की निवृत्ति ही संभव है क्योंकि
ज्ञान अज्ञान का ही तम प्रकाश के समान विरोध है, माया से
ज्ञान का कोई विरोध नहीं है।
इस शंका के निरास के लिये कहा जाता है—( सैवाविद्या)
वह माया ही अविद्या है इसलिये ज्ञान जिसका ही दूसरा नाम
विद्या है उससे अज्ञान जिसका ही दूसरा नाम अविद्या है
उसकी निवृत्ति संभव है । (मृषार्थाः अपि) यद्यपि ये माया के