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पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/२९

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( बीस ) यथार्थ चित्रण की विशेषता के कारण प्रकरण नाटक की अपेक्षा पाश्चात्त्य मनोवृत्ति के अधिक अनुकूल पड़ता है। अप्रधान रूपक भरत ने ८ अप्रधान रूपक माने हैं। दो प्रधान रूपकों को मिलाकर रूपकों की संख्या १० हो जाती है। ये ही १० रूपक परवर्ती आचार्यों को भी मान्य रहे और प्रायः सभी नाट्य शास्त्रकारों ने इस संख्या को महत्व दिया। इन ८ अप्रधान रूपकों में ५ एकाङ्की होते हैं- व्यायोग, अङ्कप्रहसन भाण और वीथी; समवकार में तीन अंक होते हैं तथा डिम एवं ईहामृग में चार चार अंक होते हैं। इनमें चार रूपक प्रसिद्ध कथावस्तु को लेकर चलते हैं और तीन में काल्पनिक कथा होती है। प्रख्यात कथावस्तु को लेकर चलने वाले नाटक हैं- व्यायोग, अझ, डिम और समवकार तथा कल्पित कथावस्तु को लेकर लिखे जाने वाले नाटक हैं- भाण, प्रहसन और वीथी। ईहामृग में मिश्र कथावस्तु होती है। इन सबके अतिरिक्त ४ अंकों की नाटिका का भी भरत ने उल्लेख किया है जो १० रुपकों के अतिरिक्त हैं। परवर्ती आचार्यों में कतिपय इसे रूपकों में स्थान देते हैं कतिपय उपरूपकों में। इनका संक्षिप्त परिचय नीचे दिया जा रहा है (९) नाटिका- इसमें सन्धि, सन्ध्यङ्ग इत्यादि सभी कुछ नाटक के समान ही होता है; किन्तु दोनों में कतिपय अन्तर भी हैं- एक तो इसकी पूर्ति ४ अंकों में होती है; दूसरे इसमें केवल शुङ्गार रस का और वह भी सीमित दिशा में प्रवृत्त होने वाले शृङ्गार रस का आस्वादन किया जाता है। न वस्तु की विविधता होती है ने रसास्वादन का सीमाविस्तार यद्यपि इसमें आस्वादन की गहराई कम नहीं होती। इसके पात्र बंधी बंधाई लीक पर चलने वाले होते हैं। एक अन्तर यह होता है कि इसकी कथावस्तु न पूर्णतः ऐतिह्य होती है न पूर्णतः काल्पनिक । नायक ऐतिह्य होता है और कथावस्तु काल्पनिक । (२) ड़िय- दशरूपक में टीकाकार धनिक ने डिम का अर्थ माना है संघात जिसका अर्थ समूह भी है और जोरदार घातप्रतिघात भी है। इस रुपक में अनेक पात्र कार्य प्रवृत्त होकर शत प्रतिघात और दांव पेंच से कथावस्तु को आगे बढ़ाते हैं। भरत के अनुसार इसकी कथावस्तु प्रख्यात होती है और इसका नायक बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति होता है। इसमें अङ्गीरस रौद्र होता है। शृङ्गार और हास्य को छोड़कर ६ रसों का प्रयोग किया जाता है। शान्तरस को रसरुपता प्रदान करने पर इसमें उसका भी निषेध समझा जाना चाहिये। इसमें ऐसी वस्तु का उपादान किया जाता है जो दीप्त रसों के अनुकूल हो तथा ऐसे भावों तथा मनोवैज्ञानिक तथ्यों का समावेश रहता है जो कठोर रसों के अभिव्यञ्जक हों। विजली की कड़क, र्यचन्द्र के ग्रहण, उल्कापातभूकम्प, प्रचण्ड वायु, घनघोर युद्ध, पैदल युद्धप्रहार और क्रोध पूर्ण ठक्ति प्रत्युक्तियों की भरमार रहती है। माया और इन्द्रजाल बहुत बड़ी मात्रा में दिखलाये जाने का विधान है। बहुत से व्यक्ति