पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१२

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( तीन ) भूमिका संगीत, नृत्य, कहानी, अभिनय, नाट्य का उदय मानव की जन्मजात प्रवृत्ति से ही होता है। किसी भी भावनाप्रवण कविता को सस्वर पढना और सुनना ही पसन्द किया जाता है, जब कोई मनोवाञ्छित सूचना मिलती है सामने आती है और मन या घटना किसी भावना से भर जाता है तब पैर स्वतः थिरक उठते हैं, कहानी का कहा और सुना जाना मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। बचपन से लेकर परिणतआयुपर्यन्त प्रत्येक व्यक्ति कहानी कहने और सुनाने में आनन्द लेता है। जब कोई व्यक्ति किसी प्रकार ऐसी घटना को सुनाता है जिसका उसकी भावना पर प्रभाव पड़ा है और वह सुनने वालों पर वही प्रभाव डालना चाहता है तब उसके हाथ पैर नेत्र इत्यादि अंग स्वतः अभिनय में प्रवृत्त हो जाते हैं। ऐसी घटना सुनाने वाला कहने वाले की आवाज बनाकर उसकी नकल करता है । कहने वाले ने जो हाथ के इशारे किये होंगे, जिस प्रकार वह चला होगा इस सबकी नकल करेगा। जिन शब्दों का उसने प्रयोग किया होगा उन्हीं का सुनाने वाला अनुकरण करेगा। आशय यह है कि अनुकरण अथवा अभिनय मनुष्य की जन्मजात प्रवृत्ति है। ये सभी एकाकी तत्व सौन्दर्य की सृष्टि करने वाले तत्त्व हैं जो आनन्द साधना में कारण होते हैं। नाट्य इन सबका संघात है। यह दृश्य और श्रव्य दोनों रूपों में आनन्द की सृष्टि करता है। समस्त ललितकलाओं में काव्य मूर्धन्य माना जाता है। काव्य में भी नाट्य का अधिक महत्व है। वामन ने कहा है- ‘सन्दर्भ में दशरूपक (नाटक इत्यादि) श्रेष्ठ हैं, क्योंकि सभी गुणों से परिपूर्ण होने से वहाँ (नाटक इत्यादि) चित्रपट के समान विचित्र रूप वाला है। पाश्चात्य विद्वान् प्रोस ने भी कुछ ऐसे ही विचार व्यक्त किये हैं। उनके अनुसार पिछड़ी जाति की प्रत्येक कहानी एक नाटक होती है, क्योंकि कहानी कहने वाला साधारण रूप में कहानी सुनाकर ही सन्तुष्ट नहीं होता, किन्तु वह अंगसञ्चालन. भावव्यञ्जक स्वरलय इत्यादि से वाणी को नवीनता देकर अपने वर्णन में जीवन का सञ्चार करना चाहता है। वह घटना को नाटक बना देता है। बच्चे और अशिक्षित व्यक्ति भी इस स्थिति में नहीं होते कि किसी भावना को बिना उस प्रकार की आकृति बनाये और उसी प्रकार की चेष्टायें किये व्यक्त कर सकें। इस प्रकार सभी प्रकार की कविता का मूल उद्गम नाट्यकला से ही होता है। एक अमेरिकन विद्वान ने विभिन्न राष्ट्रों के प्रगीतों का अध्ययन कर निष्कर्ष निकाला था और स्पष्ट किया था कि सभी प्रगीतों का वाचन मौलिक रूप में सर्वदा संगीत और नाटकीय नृत्य से समन्वित होता है। अत: यह कथन सत्य प्रतीत होता है कि, लोकप्रिय नाटक का विकास सर्वदा संगीत और नृत्य से होता है। गोटेस्कल ने १. (सन्दर्येषु दशरूपक श्रेय१-३-३० तद्धि चित्रं चित्रपटवद्विशेषसाकल्यात् १-३-३१ काव्यसूत्र)