पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/४२९

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41 त्वदीयसङ्गो बहुकालपुण्यप्रभावजो मुक्तिकरः शुभावहः । दैवेन योगेन हरेः प्रसादात्पुण्येनलब्ध: पुरुषार्थहेतुः ।। १८४ ।। तस्माद्भजस्वानुगतोऽस्मि भामिनि ! त्यजाच लज्जां कुरु मे मनोगतम् ।। १८५ ।। गच्छन्त्यच भभ प्राणास्त्वद्वियोगेन केवलम । तस्माज्जीवथ भद्र ते मरणाभिमुखं च माम्' ।। १८६ ।। माधव ने कहा-बहुत काल के पुण्य के प्रभाव से उत्पन्न, भुक्ति को देनेवाला; शुभकारी तथा पुरुषार्थ के निमित्त तुम्हारा संसर्ग भाग्य के संयोध एवं श्रीहरि के प्रसाद-रूपी पुण्य से प्राप्त हुआ है । हे भमिनि ! इसलिये अब लज्जा छोड़कर भेरे साथ संग करो, मैं तुम्हारा दाच हूँ, मेरे मनोरथ को पूरा करो ! आज मेरे प्राण केवल तुम्हारे ही वियोग से जा रहे हैं; इसलिए मुझ मरते हुए को जिला दो; तुम्हार कल्याण होंगा ! (१८६) एवमुक्ता िद्वजेन्द्रेण पृथुश्रोणी संमुत्थिता । पलायनायाऽशुमतिं चक्रे चण्डालकन्यका ।। १८७ ।। धावमानामनुदुत्य माधवस्तामुपास्पृशत् ! । रौरवं जनकस्यापि जनन्याः कुलयोध्रुवम् ।। १८८ ।। स्यादिति क्रोशमानां तां माधवो मन्मथाहतः । बलात्कारेण सङ्गृह्य बुभुजे भोगमुत्तमम्। भोगात्यये द्विजं बाला वाक्यमूचे मनस्विनी ।। १८९ ।। ब्राह्मण श्रेष्ठ द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर वहू विशाल श्रीणीवाली चाण्डाल की लड़की उठी और शीघ्र भागने का विचार करने लगी । माधव ने उस भागती हुई को दौड़कर छू लिया । माता तथा पिता दोलों कुलों को अवश्य नरक होगा । इस प्रकार कछुतो हुई उस स्त्री को कामदेव से नारे ये माधव ने बल