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पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/३३३

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315 तत्सरस्तीरमासाद्य तुरङ्गादवरुह्य च । राजवेषं समासाद्य तमपृच्छन्नरोत्तमम् । क्रियते किं नृपश्रेष्ठ! पादेऽस्मिञ्छेषभूभृतः ।। १३ ।। भगवान के कहने से शंख्रजा का तपस्या करना एक वन से दूसरे वन में जाते समय वे एक बड़े पर्वत शिलापर जनार्दन भगवान को स्थापितकर तपस्या तथा प्रतिदिन श्री एवं भूदेवीसहित भगवान की अक्ति से पूजा करनेवाले राजा के पास जाकर वहाँ जी शंखनाद सरोवर है उसके तीर को पाकर, घोडे से उतरकर, राजा का भेष धारण किये हुए उस नरोत्तम से पूछा-“हे बिदनामक पवित्र एवं उत्तमनृपश्रेष्ठ ! इस शेषाचल पर्वत के जड़तले (११-१३) अहं हैहयदेशीयः पुत्रः श्वेतस्य भूभृतः । महाविष्णोः प्रीतयेऽत्र कृतवानखिलान्क्रतून् ।। १४ ।। अदर्शनान्महाविण्णोर्निर्विण्णोऽहं नृपात्मज ! तदानीमवदद्दिव्या वाणी सर्वार्तिनाशिनी ।। १५ ।। 'राजन्नात्र भविष्यामि प्रत्यक्षं ते वचः श्रृणु । गच्छ नारायणाद्र त्व तपःकुवात मा स्फुटम् ।। १६ ।। शङ्क बोले :-मैं हेहथ देशीय राजा श्वेत का पुत्र हूँ ? महाविष्णु को प्रसन्न करने के लिए मैं. यहाँ सभी यज्ञ को किया । हे नृपात्मक ! महाविष्णू के दर्शन नहीं मिलने से मैं दुखित था । उसी समय सब दुःखों का नाश करनेवाली दिव्य (आकाश) वाणी ने मुझको स्पष्ट कहा कि हे राजन ! मैं यहाँ नहीं प्रत्यक्ष होऊँगा । मेरी बात सुनो, तू नारायणाद्रि को जाओ और वहाँ ही तपस्या करीं । (१४-१६)