266 अनन्तर मन की शुद्धि प्रदान करनेवाले इस मन्त्र के ध्यान को बतलाता हूँ। शुद्ध स्फटिक के समान स्वच्छ, रक्तपद्म के समान झांखवाले, वराहवदन, सौम्य, चतुर्वाहु, किरीटधारी, श्रीवत्साङ्कित, शंख-चक्र-अभयास्त्रधारी तुमसे सुशोभित वामोरुवाले, रक्तपीताम्बरधारी, लाल-लाल आभूषण युक्त, श्री कूर्म की पीठ पर रहनेवाले, शेष रूप कमलकोश में बैठे हुए मेरे स्वरूप का ध्यान करता हुआ मनुष्य सदा उपर्युक्त अष्टोत्तरशतमंत्र जप करे, तो सब कामनाओं की पूर्ति लामकर अन्त में मोक्ष अवश्य ही प्राप्त करता है । हे अमल ! पृथ्वीदेवी तुमने जो पूछा वह तो मैंने कह दिया । हे विमलानने ! अब और क्या सुनने की इच्छा है, उसे भी पूछ लो । श्रीवराहमन्त्रेण धर्मादीनां स्वाभीष्टसिद्धिवर्णनम् (१२-१६) श्री सूत उवाच :- । एतच्छुत्वा ततो भूमिः पप्रच्छ पुनरेव तम् । 'केनैवानुष्ठितं देव ! पुरा प्राप्तं फलं च किम् ।। १७ ।। इति पृष्टः पुनर्देवः श्रीवराहोऽब्रवीदिदम्। श्री सूत जी बोले-यह सुनकर धरणीदेवी पुन: उनसे पूछने लगी कि हे देव ! पहुले इस मन्त्र का अनुष्ठान किसने किया था तथा उसका उसने क्या फल पाया? यह सुनकर श्री वराह भगवान पुनः कहने लगे । (१७) पुरा कृतयुग देवि धर्मो नाम मनुर्महान् ।। १८ ।। ब्रह्मणोऽमुं मर्नु लब्ध्वा जप्त्वास्मिन्धरणीधरे । मा च दृष्ट्वा वर लब्ध्वा प्राप्ताऽभून्मामक पदम् ।। १९ ।। इन्द्रो दुर्वाससश्शापात् पुरा भ्रष्टस्त्रिविष्ठपात् । अनेनेष्टवात्र मां देवि पुनः प्राप्तस्त्रिविष्ठपम् ।। २० ।। अन्येऽपि मुनयो.भूमे जप्त्वा प्राप्ता परां गतिम् । अनन्त: पन्नगाधीशोह्यमुं लब्ध्वाऽथ कश्यपात् ।। २१ ।।