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पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/१२१

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मुखरित; कबूतर तथा अन्यान्य मृगपक्षियों के मधुरालाप से शोभित ; मुगंध सुधूप से सौरभित, भेरी, मृदंग; पणव, मुरजादि वाद्य ध्वनि से गुञ्जायमान ; ढाक, नगाडे आदि के शब्दों से दिगन्त मुखरित ; किन्नरों के मधुर वीणारव युक्त रुप यौवन सम्पन्न दिव्य रमणियों के नर्तन से सुशोभित ; नयनानन्ददायक, हृदयाह्लादकारक सर्वमङ्गलमय ; सुन्दर स्वरुपवाली चमर धारणियों तथा रुप-यौवन-सौन्दर्य-सम्पन्न पंखे धारण करनेबालियों तथा हाथों में आरती लिये हुए श्यामा सुन्दरियों से सुसेवित तथा छत्र, ध्वजा, पताका आदि धारिणी रमणियों से संयुक्त था । (२४-२८) ब्रह्मादयस्तथा देवाः सनकाद्याश्च योगिनः । मुनयाऽगस्त्यमुख्याश्च दृष्ट्वा तत्परमाद्भुतम् ।। २९ ।। इतिकर्तव्यतामूढाः सम्पूर्णाह्लादमानसाः । तस्थुस्तथैव पश्यन्तो विस्मयोत्फुल्ललोचनाः ।। ३० ।। आकाशचारिणो देवाः विहगाः पक्षिणस्तथा । मृगाश्च पशवः सर्वे विमानं दिव्यमुत्तमम् ।। ३१ ।। दृष्ट्वा विस्मयसम्फुल्ललोचनाः पूर्णमानसाः । चेलुस्तस्मात्पदं नैव तस्थुस्तत्रैव सादरम् ।। ३२ ।। ब्रह्मादि देवता, सनकादि योगी, अगस्त्यादि मुनिगण उस परम् अद्भुत विमान को देखकर, आनन्द विहवल हृदय से विस्मित और चकाचौंध नेत्र कर किं कर्तव्य विमूढ होकर चुपचाप स्तब्ध भाव से देखते ही रह गये। और आकाशचारी अन्य देवता, विहंग, एक्षी तथा स्थलचारी मृगादि पशु सभी उस दिव्य परमोत्तम विमान को देखकर विस्मय स्फारित नेत्र हो भरे हुए हृदय से स्तब्ध होकर उस स्थान से एक पद भी न चल सके, सब के सब वहीं स्तम्भित रह गए ।। ३२ ।। अत्यद्भुतं विमानं तद् दृष्ट्वा लोकपितामहः । परमानन्दभरितमुखलोचनपङ्कजः ।। ३३ ।। अगस्त्यं च वसिष्ठं च वामदेवं च काश्यपम् । जाबालिमथ कण्वं च देवलं देवदर्शनम् ।। ३४ ।।