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श्रीविष्णुगीता।


अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥ २७ ॥
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः पण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्त्तते ॥ २८ ॥
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनादृत्तिमन्ययाऽऽवर्त्तते पुनः ॥ २९ ॥
कर्म्मैव कारणं शुक्लकृष्णगत्योर्न संशयः।
स्वर्लोकं निरयम्वाऽपि पितृलोकमथापि वा ॥ ३० ॥
आसाद्य प्रेतलोकम्वा जीवा यान्ति पुनः पुनः ।
मर्त्यलोके जनि देवाः ! कृष्णगत्या न संशयः ॥ ३१॥


अग्निर्ज्योति अर्थात् अर्चि (तेज) की सकल अधिष्टातृदेवताएँ, अहः अर्थात् दिवसाधिष्ठातृदेवता, शुक्लः अर्थात् शुक्लपक्षाधिष्ठातृदेवता. उत्तरायणरूप छःमास अर्थात् उत्तरायणाधिष्ठातृदेवता, इन देवतागणका जो मार्ग है उसमें मृत्युके बाद जानेवाले ब्रह्मवेत्तागण ब्रह्मको प्राप्त होते हैं॥२७॥ कर्मयोगी (मरणके पश्चात् ) धूम, रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायन छ:मास इन सबके अधिष्ठातृदेवताओंके पास उत्तरोत्तर जाकर क्रमसे चन्द्रलोकको प्रात करके भोगावसान पुनः वहांसे संसारमें आता है ॥ २८ ॥ प्रकाशमय अर्चिरादि शुक्ला गति एवं तमोमय धूमादि कृष्णा गति, जगत्के ये दो मार्ग अनादिरूपसे प्रसिद्ध हैं, इन दोनों से एकके द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है और दूसरेके द्वारा पुनः संसारमें प्रत्यावृत्ति होती है ॥ २६ कर्मही शुक्ल और कृष्ण दोनों गतिका निःसन्देह कारण है। देवगण ! जीवोंको स्वर्गलोकप्राप्ति, नरकलोकप्राप्ति, पितृलोकप्राप्ति वा प्रेतलोकप्राप्ति कराके वारंवार मृत्युलोकमे जन्मप्राप्ति कराना कृष्णगतिका कार्य है. इसमे सन्देह नहीं ॥ ३०-३२ ॥