पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/७९

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति
५९
श्रीविष्णुगीता।


न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि युष्मासु वा पुनः ।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्रिभिर्गुणैः ॥ ११६ ॥
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्याः स्त निर्जराः ।
निर्द्वन्द्रा नित्यसत्त्वस्था निर्योगक्षेमकात्मकाः ॥ ११७ ।।
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान् सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥ ११८ ।।
चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां वित्ताकर्तारमव्ययम् ॥ ११९ ।।
ये चैव सात्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान् वित्त न त्वहं तेषु ते मयि ।। १२० ॥
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥ १२१ ॥


पृथिवीमें स्वर्ग वा आप लोगों में ऐसा जीव नहीं है जो प्रकृतिसे उत्पन्न इन तीन गुणोंसे छुटा हुआ हो॥११६॥हे देवतागण ! सब वेदों में तीनों गुणोंका ही विषय है, तुम तीनों गुणोंसे रहित होजाओ, सुखदुःखादि द्वन्द्वोंसे रहित हो जाओ, नित्य सत्त्वगुणमें रहो, अलब्ध वस्तुके लाभमें और लब्धवस्तुकी रक्षा यत्नशून्य होजाओ एवं आत्मवान् अर्थात् अप्रमत्त होजाओ॥ ११७ ।। सब स्थान जलमें डूब जानेपर क्षुद्र जलाशयसे जितना प्रयोजन रहता है. ब्रह्मनिष्ठ ब्रह्मज्ञको सब वेदोंसे उतनाही प्रयोजन रहता है ॥ ११८ ॥ मैंने गुण और कर्म्मौके विभाग द्वारा चारों वर्णोंकी सृष्टि की है, उनका कर्त्ता होने पर भी अव्यय होनेके कारण मुझको अकर्ता जानो ॥ ११६॥ जो सब सात्विकभाव, राजसिकभाव एवं तामसिकभाव हैं वे सब मुझसेही उत्पन्न हुए हैं ऐसा उनको जानो । मैं उन सबमें नहीं हूँ परन्तु वे मुझमें हैं ।। १२०॥ इन तीन गुणमय भावोसे मोहित यह सब जगत् इन सब भावोंसे अतीत एवं निर्विकारस्वरूप मुझको नहीं जानता