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पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/७७

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श्रीविष्णुगीता।


यदा चेत् त्रितयं सर्वं तदा तत् सात्त्विकं मतम् ॥ १०३ ॥
यदा तत्त्रयमुत्पत्तिस्थिसत्ययस्वरूपिणि ।
भावे भावं समासाद्य द्वैतरूपं निषेवते ॥ १०४॥
तदा तं राजसं देवाः ! पुरुषार्थं प्रचक्षते।
यो हि नास्तिकतामूलः स तामस उदाहृतः ॥ १०५ ॥
आयुःसत्त्ववलारोग्यमुखप्रीतिविवर्द्धनाः ।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः॥१०६॥
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः ।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥ १०७ ॥
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितञ्च यत् ।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनंतामसप्रियम् ॥ १०८॥
सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणुतामृतभोजिनः !।
यात अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तञ्च निगच्छति ॥ १०९ ॥


मूलक होकर ब्रह्मके निरूपणमें लगता है तब वह सात्त्विक माना जाता है ॥ १०२-१०३॥ हे देवतागण ! जब वह उत्पत्ति स्थिति लयस्वरूप भावमें भावित होकर द्वैतरूपको प्राप्त होता है तब उस त्रितयरूप पुरुषार्थको राजसिक कहते हैं और जो नास्तिकतामुलक त्रितयरूप पुरुषार्थ है वह तामसिक कहागया है॥ १०४२०५॥ आयु, सात्त्विकभाव, शक्ति, आरोग्य, चित्तप्रसाद और रुचिके बढानेवाले, रसयुक्त एवं स्नेहयुक्त, जिनका सारांश हमें स्थायीरूपसे रहे और चित्तको परितोष करनेवाले आहार सात्विक पुरुषों के प्रिय होते हैं ॥ १०६॥ कटु, अम्ल, लवण (क्षार) अत्युष्ण, तीक्ष्ण, रूक्ष, विदाही ये सब दुःख सन्ताप और रोगप्रद आहार राजसिक व्यक्तियोंके प्रिय हैं।२०७॥ एक पहर पहले बना हुआ (ठंडा) विरस, दुर्गन्धयुक्त, बासी, झूठा और अपवित्र जो आहार है वह तामसिक व्यक्तियोको प्रिय होता है॥१०८ ॥ हे देवतागण ! अब सनुो सुख भी तीन प्रकारका है । जिस सुखमे अभ्याससे अर्थात् स्वतः ही