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श्रीविष्णुगीता।


स्मृतिं व्यतीतविषयां मतिमागामिगोचराम् ।
प्रज्ञां नवनवोन्मेषशालिनीं प्रतिभां विदुः ।। ७८ ।।
द्रष्टुर्दश्यस्योपलब्धौ क्षमा चेत् प्रतिभा तदा।।
सात्त्विकी सा समाख्याता सर्वलोकहिते रता ।। ७९ ॥ .
यदा शिल्पकलायां सा पदार्थालोचने तथा।
प्रसरेदराजसी ज्ञेया तदा सा प्रतिभा बुधैः ॥ ८० ॥
साधारणं लौकिकञ्चेत् सदसद्विमृशेत्तदा ।
तामसी सा समाख्याता प्रत्युत्पन्नमतिश्च सा ॥ ८१ ।।
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिप्रकृतिभेदतः ।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी च बुभुत्सवः ! ॥ ८२ ॥
तासान्तु लक्षणं देवाः ! शृणुध्वं भक्तिभावतः ।
श्रद्धा सा सात्त्विकी ज्ञेया विशुद्धज्ञानमूलिका ॥ ८३ ।।


नहीं करता है वही तामसी धृति है ॥७७॥ अतीत विषयोंसे सम्बन्ध रखनेवाली प्रज्ञाको स्मृति, आगामि विषयोंसे सम्बन्ध रखनेवाली प्रज्ञा को बुद्धि और नवीन नवीन (ज्ञान विज्ञानोको ) उद्भव करनेवाली प्रज्ञाको प्रतिभा कहते हैं ॥ ७८ ॥ जब द्रष्टा और दृश्यकी उपलब्धिमें प्रतिभा समर्थ होती है तब सब लोकोके हितमें तत्पर वह प्रतिभा सात्त्विकी कही जाती है ॥ ७९ ॥ जब वह शिल्पकला और पदार्थोकी आलोचनामें प्रसारको प्राप्त होती है तब उस प्रतिभाको बुधगण राजसी प्रतिभा जानते हैं ।। ८० ॥जब वह साधारण लौकिक सत् असत्का विचार करे तो उसको तामसी प्रतिभा कहते हैं और उसको प्रत्युत्पन्नमति भी कहते हैं ॥ १ ॥ हे जिज्ञासुओ ! प्राणियोंकी प्रकृतिके अनुसार श्रद्धा तीन प्रकारकी होती है,सात्त्विकी राजसी और तामसी ॥ ३२॥ हे देवतागण ! अब उनके लक्षण भक्ति भावसे सुनो । जो विशुद्धज्ञानमूलक श्रद्धा है उसको सात्त्विकी जानो ॥३॥