महाविष्णुरुवाच ॥७॥
लीनाऽव्यक्तदशायां मे प्रकृतिर्मयि सर्वदा।।
तथा व्यक्तदशायां सा प्रकटीभूय सर्वतः ॥ ८ ॥
त्रिगुणानां तरङ्गेषु स्वभावाद्धि तरङ्गति ।
नैवात्र संशयः कोऽपि वर्त्तते विबुधर्षभाः ! ॥९॥
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः ।
निबध्नन्ति सुपर्वाणो देहे देहिनमव्ययम् ॥ १० ॥
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघाः ! ॥ ११ ॥
रजो रागात्मकं वित्त तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
तन्निबध्नाति भो देवाः ! कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥१२॥
तमस्त्वज्ञानजं वित्त मोहनं सर्वदेहिनाम् ।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति निर्जराः ! ॥ १३ ॥
महाविष्णु बोले ॥७॥
मेरी प्रकृति अव्यक्त दशामें मुझमें सर्वदा लीन रहती है और व्यक्त दशामें वह प्रकट होकर स्वभावसेही त्रिगुण तरङ्गसे सब ओर तरङ्गित होने लगती है । हे देवतागण ! इसमें कुछ सन्देह नहीं है।--8)। हे देवतागण! सत्त्व रज और तम ये तीन गुण प्रकृतिसे उत्पन्न होकर देहों में स्थित निर्विकार देहीको आबद्ध किया करते हैं ॥१०॥ हे पापरहितो! इन तीनों गुणोंमें से निर्मल होनेके कारण, प्रकाशक और दोषरहित सत्वगुण सुखासक्तिके द्वारा और ज्ञानसंगके द्वारा बद्ध करता है ।। २१॥ हे देवतागण ! रजोगुणको रागात्मक, और तृष्णासक्ति से उत्पन्न जानना, वह देहीको कर्मासक्तिके द्वारा आबद्ध किया करता है ॥१॥ हे देवतागण ! तमोगुणको अज्ञानसे उत्पन्न और सब प्राणियोंमें भ्रम उत्पन्न करनेवाला जानो, वह प्रमाद अनुद्यम और चित्तकी अवसन्नताके द्वारा देहीको आबद्ध करता है।