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श्रीविष्णुगीता।


परस्परं भावयन्तः श्रेयो देवाः ! अवाप्स्यथ ॥ ६८॥
इष्टान् भोगान् भवन्तो हि दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
अदत्त्वा वो भवदत्तान् यो भुंक्त स्तेन एव सः ॥ ६९ ॥
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्यात्मकारणात् ॥ ७० ॥
अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।।
यज्ञाद् भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥ ७१ ॥
कर्म ब्रह्मोद्भवं वित्त ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात् सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥ ७२ ॥
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं देवाः ! स जीवति ॥ ७३ ॥
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।


करें और आपलोग उनको सम्वर्द्धित करें इसी प्रकार परस्पर सम्बर्द्धित होकर सब कल्याण प्राप्त करेंगे ॥ ६८॥ आपलोग यज्ञसे सम्वर्द्धित होकर उनको अभिलषित भोग प्रदान करेंगे इसलिये आपके दिये भोगोंको आपलोगोंको अर्पण किये बिना ही जो भोगता है वह चोर ही है ॥ ६९ ॥ यज्ञका अवशिष्ट भोजन करनेवाले सज्जनगण सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं किन्तु जो अपने ही लिये भोजन बनाते हैं चे पापिगण पापको ही भोजन करते हैं ॥ ७० ॥ जीवसमूह अन्नसे उत्पन्न होते हैं, अन्न वृष्टि होनेसे उत्पन्न होता है और यज्ञसे वृष्टि होती है एवं यज्ञ कर्म द्वारा सम्पन्न होता है ॥ ७१ ॥ कर्मको ब्रह्म (वेद) द्वारा उत्पन्न समझो और ब्रह्म (वेद ) अक्षर (ब्रह्म) से उत्पन्न है इसलिये सर्वव्यापी ब्रह्म यज्ञमें नित्य प्रतिष्ठित है।। ७२ ॥ इस लोकमें जो इस प्रकार प्रवर्तित चक्रका अनुसरण नहीं करता है,हे देवगण इन्द्रियासक्त पापजीवन वह व्यक्ति व्यर्थ जीता है॥ ७३ ॥ कितने योगिगण देवयनज्ञी ही उपासना करते है, कोई