महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥ ४१ ।।
एतां विभूति योगञ्च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥ ४२ ॥
बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयञ्चाभयमेव च ॥ ४३ ॥
अहिंसा समता तुष्टिः स्तपो दानं यशोऽयशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथविधाः ॥४४॥
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥ ४५ ॥
- देवा ऊचुः॥ ४६॥
अनादिदेव ! पृष्टीनां कर्त्तः ! पालक ! हारक ! ।
प्रभो ! विश्वनियन्तर्नः कृपया कथयाऽधुना ॥ ४७ ।।
पापोंसे मुक्त होजाता है ॥.४०॥ भृगु आदि सात महर्षि और उनके पूर्ववर्ती सनकादि चार महर्षि तथा स्वायंभुवादि चौदह मनु ये सभी मेरे प्रभावसे युक्त हैं एवं मेरे हिरण्यगर्भरूपके सङ्कल्प मात्रसे ही उत्पन्न हैं, सब संसारके सब जीव उन्हींकी सृष्टि की हुई प्रजा है ॥४१॥ जो तत्वज्ञानके द्वारा मेरी उक्त विभूति एवं योगको जानता है वह अचल समाधि युक्त होता है इसमें सन्देह नहीं ॥४२॥ बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, सत्य, दम, शम, सुख, दुःख, भव (उद्भव), अभव (नाश) भय, अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश, अयश, प्राणियोंके ये सब नाना प्रकार के भाव मुझसे ही उत्पन्न होते हैं ॥४३-४४ ॥ मैं सकल जगत्की उत्पत्तिका हेतु हूँ और मुझसे ही सब जगत् प्रवृत्तिको प्राप्त करता है यह जानकर विवेकिगण मेरे भावको प्राप्त होकर मेरा भजन करते है ॥ ४५ ॥
- देवतागण बोले ॥ ४६ ॥
हे विश्वनियन्ता! हे सृष्टिके कर्ता पालक और संहारक प्रभो !