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श्रीविष्णुगीता।



यूयमाचारमाजश्चेत्स्वकर्तव्यपरायणाः ।
स्वधर्मनिरताश्चापि भवितुं खलु शक्ष्यथ ॥ ७१ ॥
मच्चित्ताश्चेत्तदा यूयं भयात्तापादभावतः ।
विमुक्ताः सर्वकल्याणं लप्स्यध्वे मत्प्रसादतः ॥ ७२ ॥
आचारः सर्वकल्याणमूलं नूनं दिवौकसः !
शक्ष्यन्त्याचारवन्तो हि प्राप्तुं कल्याणसम्पदः ॥ ७३ ॥
आचारमूला जातिः स्यादाचारः शास्त्रमूलकः।
वेदवाक्यं शास्त्रमूलं वेदः साधकमूलकः ॥ ७४ ॥
साधकश्च क्रियामूलः क्रियाऽपि फलमूलिका।
फलमूलं सुखं देवाः ! मुखमानन्दमूलकम् ॥ ७ ॥
आनन्दो ज्ञानमूलस्तु ज्ञानं वै ज्ञेयमूलकम् ।
तत्त्वमूलं ज्ञेयमानं तत्त्वं हि ब्रह्ममूलकम् ॥ ७६ ॥
ब्रह्मज्ञानं त्वैक्यमूलमैक्यं स्यात्सर्वमूलकम् ।
ऐक्यं तद्धि सुपर्वाणः ! भावातीतं सुनिश्चितम् ॥ ७७ ॥


जनित भय, अयोग्य-प्रवृत्तिजनित ताप और मेरे विस्मरणजनित अभाव, इन सबोंने अधिकार कर लिया है ॥ ७० ॥ यदि तुम आचारवान् होनेसे कर्त्तव्य परायण, स्वधर्मनिरत और मद्गतचित्त हो सकोगे तब भय और तापमुक्त होकर सब प्रकारके अभावको दूर करते हुए मेरी कृपासे यावत् मङ्गल लाभ करोगे ॥७१-७२ ॥ हे देवगण ! आचार ही सब कल्याणोंका मूल है आचारवान ही सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं ॥ ७३ ॥ जाति आचारमूलक होती है, आचार शास्त्रमूलक होता है, शास्त्रका मूल वेदवाक्य है, वेदका मूल साधक है, साधककी मूल क्रिया है, क्रियाका मूल फल है, हे देवगण ! फलका मूल सुख है, सुखका मूल आनन्द है, आनन्दका मूल ज्ञान है, ज्ञानका मूल ज्ञेय है, सकल ज्ञेयोंका मूल तत्त्व है, तत्त्वका मूल ब्रह्म है. ब्पह्मज्ञानका मूल ऐक्य है