पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१४७

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श्रीविष्णुगीता। सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वनपि न लिप्यते ॥ १२३ ॥ नैव किञ्चित् करोमीति युक्तो अन्येत तत्त्ववित् । पश्यन् श्रृण्वन्स्पृशन् जिघनश्नन् गच्छन्स्वपन् श्वसन् ॥१२४॥ प्रलपन् विसृजन् गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्त्तन्त इति धारयन् ।। १.२५ ॥ ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः । लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रीमवाम्भसा ॥१२६॥ सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी। नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन् न कारयन् ॥ १२७ ॥ अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः । स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाऽक्रियः॥१२८॥ यत्कुरुध्ये यदश्नीय यज्जुहुध्ये च दत्थ यत् । सब भूतोंकी आत्माही जिसकी आत्मा है ऐसा योगयुक्त व्यक्ति कर्म करता हुआ भी कर्ममें बद्ध नहीं होता है ॥ १२३ ॥ (ब्रह्ममें) युक्त तत्त्ववित् व्यक्ति दर्शन, श्रवण, स्पर्श, प्राण, भोजन, गमन, निद्रा, श्वास, भाषण, त्याग, ग्रहण, उन्मेष और निमेष करता हुआ भी, इन्द्रियगण इन्द्रियके विषयोंमें प्रवृत्त होते हैं ऐसी धारणा करता हुआ मैं कुछ भी नहीं करता हूं ऐसा समझता है ॥ १२४-१२५ ॥ जिस प्रकार पद्मपत्र जलमें लिप्त नहीं होता है उसी प्रकार कर्मोको ब्रह्ममें समर्पित और फलासक्ति त्याग करके जो कर्म करता है वह पाप अर्थात् बन्धन करनेवाले कर्म्मोसे लिप्त नहीं होता है॥१२६॥ जितेन्द्रिय देही (विवेकयुक्त ) मनके द्वारा सब कर्मोंका त्याग करके नव द्वारोंसे युक्त पुरमें अर्थात् स्थूल शरीरमें नहीं कुछ करता हुआ और नहीं कुछ कराता हुआ सुखपूर्वक रहता है ॥ १२७ ॥ जो कर्मफलका आश्रय नहीं करके कर्त्तव्य कर्म करता है वही स. न्यासी है और वही योगी है। निरग्नि अर्थात् अग्निसाध्य ईष्टादि कर्म-