पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१३८

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श्रीविष्णुगीता। मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥ ७० ॥ प्रकृतिं पुरुषं चैव वित्तानादी उभावपि । विकाराँश्च गुणांश्चैव वित्त प्रकृतिसम्भवान् ॥ ७१ ॥ कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते । पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥ ७२॥ पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान् गुणान् ।। कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥ ७३ ॥ उपद्रष्टानुऽमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः । परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन् पुरुषः परः ॥ ७४ ।। य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिञ्च गुणैः सह । .. सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥ ७ ॥ ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना । अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥ ७६ ॥ संक्षेपसे कहेगये । मेरा भक्त इनको जानकर ब्रह्मत्वप्राप्तिके योग्य होता है॥ ७० ॥प्रकृति और पुरुष इन दोनोको ही अनादि जानो और ( देह इन्द्रिय आदि) विकार एवं (सत्त्व आदि) गुणोंको प्रकृतिसे उत्पन्न समझो ॥ ७१ ॥ कार्य और कारणके कर्तृत्वमें प्रकृति हेतु कही गई है और पुरुष सुख दुःखोके भोक्तृत्वमें हेतु कहा गया है ७२॥ क्योंकि पुरुष प्रकृतिस्थ होकर प्रकृतिसे उत्पन्न सब गुणोको भोगता है किन्तु इस पुरुषके सत् एवं असत् योनियोमें जन्म होनेका कारण गुणों ( सत्त्व आदि)का सङ्ग है ॥ ७३ ॥ इस देहमें ( वर्तमान भी) पुरुष (इससे) पर अथात् पृथक् है क्योकि वे साक्षिमात्र अनुग्रहकर्ता, पोषणकर्त्ता, प्रतिपालक और महेश्वर हैं ॥७॥ जो इस प्रकारसे पुरुषको और गुणों के साथ प्रकृतिको जानता किसी प्रकारसे अथवा किसी अवस्थामें वर्त्तमान रहनेपर भी पुनर्जन्म ग्रहण नही करता है ॥ ७५ ॥ कोई कोई ध्यानयोगसे आत्माको बुद्धिके द्वारा देखते है, अन्य कोई ज्ञानयोग के द्वारा और कोई (निष्काम) अन् ग्रहण नहीं