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पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१३६

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श्रीविष्णुगीता।


ज्ञानं विज्ञानसहितं यजज्ञात्वा मोक्ष्यथाशुभात् ॥५७ ॥
इदं शरीरं भो देवाः क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ।। ५८ ॥
क्षेत्रज्ञं चाऽपि मां वित्त सर्वक्षेत्रेषु निर्जराः ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज़ज्ञानं मतं मम ।। ५९ ॥
तत् क्षेत्रं यच्च यादृक् च यद्विकारि यतश्च यत् ।
स च यो यत्प्रभावश्च तच्छृणुध्वं समासतः ।। ६० ॥ ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥ ६१ ॥
महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकञ्च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥ १२ ॥
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चतना धृतिः ।
एतत् क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥ ६३ ॥


नोंको कहता हूं जिसको जानकर तुमलोग सकल पापोंसे मुक्त होजाओगे ॥ १७ ॥ हे देवगण ! यह शरीर क्षेत्र नामसे अभिहित होता है और इस क्षेत्रको जो जानता है उसको तत्वज्ञानी क्षेत्रज्ञ कहते हैं॥१८॥ और हे देवगण ! सब क्षेत्रों में भी मुझको क्षेत्रज्ञ जानो । क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका जो ज्ञान है वह ज्ञान मेरा अभिमत है॥५६॥ जो क्षेत्र है वह जो है जैसा है जिन जिन विकारोंसे युक्त है और जिससे उत्पन्न है एवं वह क्षेत्रज्ञ भी जो है और जिस प्रभावका है सो संक्षेपसे सुनो ॥ ६॥ (जो) ऋषियोंसे ब्रह्मसूत्रके पदोसे और युक्तियुक्त तथा विनिश्चित पृथक् विविध वैदिक मन्त्रोसे अनेक प्रकारसे निरूपित है ( उसको संक्षेपसे कहता हूँ)॥६१ ॥ पंच पृथिव्यादि महाभूत, अहङ्कार, बुद्धि, मूलप्रकृति, दश इन्द्रियाँ एक मन और इन्द्रियों के विषय ( शब्दस्पर्शादि ) पंच तन्मात्रा, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, सङ्घात (शरीर ) चेतना (मनोवृत्ति और धैर्य यह विकारयुक्त क्षेत्र संक्षेपसे कहागया है॥ ६२-६३ ॥