पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१२५

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श्रीविष्णुगीता।


सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः।
मय्यार्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ १०९ ॥ यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः। हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥ ११० ॥
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः ।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्क्तः स मे प्रियः ॥ १११ ॥
यो न हृष्यति न दृष्टि न शोचति न काङ्क्षति । शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान यः स मे प्रियः ॥ ११२ ॥
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखषु समः सङ्गविवर्जितः ॥ ११३ ॥ तुल्यनिन्दास्तुतिर्मोनी सन्तुष्टो येन केनचित् ।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान् मे प्रियो हि सः ॥ ११४ ।।


ओर स्थिर लक्ष्य रखनेवाला, और मुझमें मन और बुद्धिको समर्पण करनेवाला जो मेरा भक्त है वह मेरा प्रिय है ॥ १०८-१०६॥ जिसके द्वारा संसार उद्विग्न नहीं होता है, जो संसारसे उद्विग्न नहीं होता है और जो हर्ष अमर्ष (अन्यको लाभ होनेसे कातर होना ) भय और चित्तक्षोभसे रहित है वह मेरा प्रिय है ॥ ११०॥ सकल विषयोंमें निःस्पृह, शुचि, चतुर, उदासीन, जिसको व्यथा नहीं होती, और सब सङ्कल्पोंका त्याग करनेवाला जो मेरा भक्त है वह मेरा प्रिय है॥११२॥ जोप्रसन्न नहीं होता है, द्वेष नहीं करता है,शोक नहीं करता है, आकाङ्क्षा नहीं करता है, पाप पुण्योंका परित्याग करनेवाला है और मुझमें भक्तिमान् है वह मेरा प्रिय है ॥ ११२ ॥ जो शत्रु और मित्रमें एवं मान और अपमानमें एकरूप रहता है, शीत उष्ण और सुखदुःखों में विकारहीन है, निःसंग है, निन्दा और प्रशंसामें समभावापन्न है, मौनी (मनको दमन करनेवाला) है, जो कुछ मिलजाय उससे सन्तुष्ट है, वासस्थानहीन है, स्थिरचित्त है और भक्तिमान् है वह मेरा प्रिय १४