पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९६६

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नवनवतितमोऽध्यायः ६४५ ॥२५१ असपत्नं तदासर्षाद्वैशम्पायन एव तु | न स्थास्यतीह दुर्बुद्धे तवैतद्वचनं सुवि यावत्स्थास्यास्यहं लोके तावन्नैतत्प्रशस्यते । अभितः संस्थितश्चापि ततः स जनमेजयः [* पौर्णमास्येन हविषा देवमिष्ट्वा प्रजापतिम् । विज्ञाय संस्थितोऽपश्यत्तद्वधीष्टां (तदिष्टं) विभोर्सखे ॥ ॥२५२ परीक्षित्तनयश्चापि पौरवो जनमेजयः] । द्विरश्वमेधमाहृत्य ततो वाजसनेयकम् ॥ प्रवर्तयित्वा तद्ब्रह्म त्रिखर्वी जनमेजयः खर्वमश्वकमुख्यानां खर्वमङ्ग निवासिनाम् | खर्वं च मध्यदेशानां निखर्वी जनमेजयः ॥ विषदाद्द्ब्राह्मणैः सार्धमभिशस्तः क्षयं ययौ ॥२५४ ॥२५५ ॥२५६ ॥२५७ तस्य पुत्रः शतानीको बलवान्सत्यविक्रमः | ततः सुतं शतानीकं विप्रास्तसभ्यषेचयन् पुत्रोऽश्वमेधदत्तोऽसूच्छतानीकस्य वीर्यवान् । पुत्रोऽश्वमेधवत्ताद्वै जातः पुरपरंजयः अधिसामकृष्णो धर्मात्मा सांप्रतोऽयं महायशाः | यस्मिन्प्रशासति नहीं युष्भाभिरिदमाहृतम् ॥२५८ दुरापं दीर्घसत्रं वै त्रीणि वर्षाणि दुश्वरम् । वर्षद्वयं कुरुक्षेत्रे दृषद्वत्यां द्विजोत्तमाः + ॥२५६ तुम्हारी यह मर्यादा पृथ्वी पर स्थिर न रह सकेगी, जब तक मै जीवित हूं, तब तक तो उसकी प्रशंसा नहीं हो सकती । चारो ओर से संकटापन्न होकर जनमेजय ने पौर्णमास नामक यज्ञ का अनुष्ठान किया, और उसमें प्रजापति देव को हवि देकर सन्तुष्ट किया, मख मे सर्वेश्वर्यशाली प्रजापति के निमित्त यज्ञ करने पर भी उनको स्थिति वैसी हो रही । यह देखकर पुनः पुरुवंशो परीक्षितपुत्र राजा जनमेजय ने दो अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया, और उसमें अपने द्वारा प्रतिष्ठित वाजसेनय का प्रवर्तन किया, इसमें उन्हें तीन स्थानों पर पराजित होना पड़ा ।२५१-२५४॥ सर्वप्रथम अश्वक मुख्यों के यहाँ, फिर अङ्ग देशवासियों के यहाँ फिर मध्यदेश निवासियो के यहाँ - इस प्रकार जनमेजय को तीन बार पराजित होना पड़ा। इससे उसे बड़ा विषाद हुआ फलस्वरूप ब्राह्मणों के साथ निन्दा का पात्र होकर वह विनाश को प्राप्त हुआ | २५५। राजा जनमेजय का पुत्र शतानीक था, जो परम बलशाली, सत्यवादी तथा विक्रमी था । ब्राह्मणों ने जनमेजय की मृत्यु के बाद उसके स्थान पर शतानीक का अभिषेक किया | शतानीक का पुत्र परम वलशाली अश्वमेघदत्त हुआ । अश्वमेदत्त से शत्रुओं के दुर्गो को जीतनेवाले अघिसामकृष्ण नामक पुत्र को उत्पत्ति हुई | ऋषिवृन्द ! यही परम धर्मात्मा राजा सम्प्रति राज्य कर रहा है। उसी के राज्यकाल में आप लोगों ने इस परम दुर्लभ तीन वर्ष चलनेवाले दीर्घसत्र का अनुष्ठान प्रारंभ किया है, इसके अतिरिक्त दृषद्वती के तट प्रान्त पर कुरुक्षेत्र में भी दो वर्ष व्यापी एक दीर्घसत्र चल रहा है | २५६-२५६।

एतच्चिह्नान्तर्गंतग्रन्थः ख पुस्तके नास्ति । + अत्राध्यायसमाप्तिदृश्यते व पुस्तके | फा०-११६