पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९२१

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६०० वायुपुराणम् ॥१५० ॥१५१ ॥१५२ ॥१५३ प्रजागरे ततश्चेन्द्रो जयन्तीमात्मनः सुताम् । (* प्रोवाच मतिमान्वाक्यं स्वां कन्यां पाकशासनः ॥१४६ एष काध्यो हान्द्रिाय चरते दारुणं तपः । तेनाहं व्याकुलः पुत्रि कृतो धृतिमता दृढम् ) गच्छ संभावयस्वैनं श्रमापनयनैः शुभैः | तैस्तैर्मनोनुकू लश्च ह्य पचारैरतन्द्रिता देवी सा होन्द्रदुहिता जयन्ती शुभचारिणी | युक्तध्यानं च शाम्यन्तं दुर्बलं धृतिमास्थितम् पित्रा यथोक्तं काव्यं स काव्ये कृतवती तदा | गोभिश्चैवानुकूलाभिः स्तुवती वल्गुभाषिणी गात्रसंवाहनः काले सेव्यमाना सुखावहैः । शुश्रूषन्त्यनुकूला च उवास बहुलाः समाः पूर्ण धूम्रव्रते चापि घोरे वर्षसहस्रिके | वरेणच्छन्दयामास काव्यं प्रीतोऽभवत्तदा एवं ब्रुवंस्त्वयैकेन चीर्णं नान्येन केनचित् । तस्मात्त्वं तपसा बुद्धया श्रुतेन च बलेन च तेजसा चापि विबुधान्सर्वानभिभविष्यसि । यच्च किंचिन्मम ब्रह्मन्निद्यते भृगुनन्दन साङ्गं च सरहस्यं च यज्ञोपनिषदां तथा । प्रतिभास्यति ते सर्वं तच्चाऽऽद्यन्तं ( ? )न कस्यचित् ॥१५८ ॥१५४ ॥१५५ ॥१५६ ॥१५७ नहीं आयी ११४५-१४८ । इस प्रकार अत्यन्त व्याकुल होकर परम बुद्धिमान् पाकशासन इन्द्र ने अपनी पुत्रो जयन्ती से कहा, वेटी ! दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य मेरे विनाश के लिए परम कठोर तपस्या कर रहे हैं, वे परम धैर्यशाली हैं, इस कार्य के लिए उन्होंने दृढ़ निश्चय भी कर लिया है, उनके इस कर्म से मैं बहुत व्याकुल हूँ । तू जा और उनके कष्टों एवं कठिनाइयों को दूर करने वाले अपने श्रेष्ठ एवं मङ्गलदायी कार्यो से उन्हें प्रसन्न कर, उनके मन के अनुकूल रहकर विविध सेवाओं द्वारा उन्हें सावधानतापूर्वक प्रसन्न करने की चेष्टा कर | शुभ कर्म करने वाली इन्द्र की पुत्री जयन्ती स्वभाव से देवी थी, उसने जाकर देखा तो शुक्राचार्य उस समय ध्यान मग्न थे, वे परम दुर्बल हो गये थे, फिर भी शान्त चित्त एवं धैर्यशाली दिखाई पड़ रहे थे ।१४९-१५२। पिता ने शुक्राचार्य के लिए जैसा बतलाया था, उस मृदुभाषिणी ने उनके लिए वैसा ही आचरण किया, कान को मीठी लगने वाली सुन्दर वाणियों से उसने शुक्राचार्य की स्तुति की। समय-समय पर सुख पहुँचाने के लिए चरणादि का संवाहन किया, अत्यन्त अनुकूल आचरण करती हुई, सेवा में दिन रात दत्तचित्त रहकर उसने बहुत वर्षों तक उपवास रखा । इस प्रकार उस परम घोर सहस्र वर्ष वाले धूम्रव्रत के समाप्त हो जाने पर महादेव जी शुक्राचार्य के ऊपर परम प्रसन्न हुए और उन्हें वरदान देते हुए बोले, भृगुनन्दन ! इस परम कठोर तप का अकेले तुम्हों ने पालन किया है, किसी अभ्य ने इसका पालन आज तक नही किया है, इसलिए तुम अपनी इस परम कठोर तपस्या, बुद्धि, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, एवं तेज से समस्त देवताओं को पराजित करोगे, हे ब्राह्मण । यज्ञों एव उपनिषदों को जो कुछ भी मंत्रशक्ति मुझमे विद्यमान है, उनके जो भी विविध अंग उपाङ्ग एवं गूढ रहस्य मुझे विदित हैं, वे सव तुम्हें सर्वाशत प्राप्त होंगे, किसी दूसरे को

  • धनुरिचह्नान्तर्गतग्रन्थः ख. पुस्तके नास्ति |