पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८४९

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८२५ वायुपुराणम् शप्त्वा पुरीं निकुम्भस्तु महादेवमथानयत् | शून्यां पुरीं महादेवो निर्ममे परमात्मना तुल्यां देवविभूत्यास्तु देव्याश्चैव महात्मनः । रमते तत्र वै देवी रममाणो महेश्वरः न रतिं तत्र वै देवी लभते गृहविस्मयात् । देव्याः क्रीडार्थमीशानो देवो वाक्यमथाब्रवीत् नाहं वेश्म विमोक्ष्यामि अविमुक्तं हि मे गृहम् । प्रहस्यैनामथोवाच अविमुक्तं हि मे गृहम् नाहं देवि गमिष्यामि गच्छस्वेह वसाम्यहम् । तस्मात्तदविसुक्तं हि प्रोक्तं देवेन वै स्वयम् एवं वाराणसी शप्ता अविमुक्तं च कीर्तितम् । यस्मिन् वसति वै देवाः सर्वदेवनमस्कृतः ॥ युगेषु त्रिषु धर्मात्मा सह देव्या महेश्वरः अन्तर्धानं कलौ यति तत्पुरं तु महात्मनः । अन्तहिते पुरे तस्मिन्पुरी सा वसते पुनः एवं वाराणसी शप्ता भिवेशं पुनरागता | भद्रश्रेण्यस्य पुत्राणां शतमुत्तमधन्विनाम् हत्या निवेशयामास दिवोदासो नराधिपः । भद्रश्रेण्यस्य राज्यं तु हृतं तेन बलोयसा भद्रक्षेण्यस्य पुत्रस्तु दुर्दमो नाम नामतः । दिवोदासेन बालेति घृणया स विर्वाजतः ॥५४ ॥५५ ॥५६ ॥५७ ॥५८ ॥५६ ६० ॥६१ ॥६२ ॥६३ कारण के ही सूनी हो जायगी ।' निकुम्भ के इसो शाप के कारण प्राचीनकाल में वाराणसीपुरी सूनी हुई थी । इस प्रकार वागणसी को शाप देकर निकुम्भ ने वहाँ पर महादेव जी को बुलाया |५१-५४| देवाधिदेव महादेवजी ने उस सूनी परी का दैविकविभूतियों द्वारा पुननिर्माण किया, उसमें महान् ऐश्वर्यशाली महादेव का तथा दिव्यगुणमयी पार्वती का नित्य विहार होने लगा। अपने भवन को देखकर पार्वती जी को परम विस्मय होता था. उन्हें कुछ दिन के बाद इसमें सस्तोप नहीं मिला, तव ईशानदेव ने देवी की कोटा के लिए उनसे यह बात कही, 'देवि ! मैं अपने इस ग्रन्दर भवन का परित्याग नहीं करूंगा, मेरा यह गृह हए महादेव जी ने पार्वती से फिर कहा कि मेरा गह भवन अविमुक्त है । में जाऊंगा तूम चाहो तो यहाँ से जा सकतो हो, में तो यहीं पर रहूँगा । यतः से इसे अविमुक्त कहा था, अत: उसका अविभक्त नाम पडा १५५-५८। इस प्रकार वाराणसीपुरी को जिस कारणवश शाप दिया गया था और उसका अविमुक्त नाम जिस कारण से पडा था, वह सब मैं कह चुका | उस वाराणसी नगरी में सभी देवताओं के नमस्करणीय धर्मात्मा महादेव जी पार्वती के साथ तीनों युगो में निवाम करते हैं ।५६1 केवल कलियुग में महात्मा शंकर का वह पुर अन्नहित हो जाता है । उसके अन्तहित हो जाने पर वह वाराणसी पुगे पुन: वहाँ प्रतिष्ठित होती है । इस प्रकार निकुम्भ के शाप से शापित वाराणसी पुनः प्रतिष्ठित हुई | प्राचीनकाल में नरपति दिवोदास ने राजा भद्रश्रेण्य के परम धनुर्धारी सो पुत्रों का निधन करके उसके पुर में प्रवेश किया और परम बलशाली उसने भद्रश्रेण्य के राज्य को भी छीन लिया था | भद्रश्रेण्य का एक पुत्र दुर्दुम नामक था, राजा दिवोदास ने उसे निपट बालक समझ कर उसके जीतने का कोई अविमुक्त है, इस प्रकार हँसते तो यहाँ से कहो अन्यत्र नहीं महादेव जी ने स्वयं अपने मुख