पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८०४

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अष्टाशीतितमोऽध्यायः तं वारय महाबाहो लोकानां हितकाम्यया | तेजस्ते सुमहाविष्णुस्तेजसाssध्याययिष्यति लोकाः स्वस्था भवन्त्वद्य तस्मिन्विनिहतेऽसुरे | त्वं हि तस्य वधायाद्य समर्थः पृथवीपते विष्णुना च वरो दत्तो मम पूर्व ततोऽनघ । न हि धुन्धुर्महावीर्यस्तेजसाऽल्पेन शक्यते निर्दग्धं पृथिवीपाल अपि वर्षशतैरिह | वीर्यं हि सुमहत्तस्य देवैरपि दुरासम् एवमुक्तस्तु राजर्षिरुत्तङ्केन महात्मना । कुवलाश्चं सुतं प्रादात्तस्मिन्धुन्धुनिवारणे राजा संन्यस्तशस्त्रोऽहमयं तु तनयो मम | भविष्यति द्विजश्रेष्ठ धुन्धुमारो न संशयः सतं व्यादिश्य तनयं धुन्धुमारणमुद्यतम् । जगाम पर्वतायैव तपसे शंसितव्रतः कुवलाश्वस्तु धर्मात्मा पितुर्वचनमास्थितः । सहस्रैरेकविंशत्या पुवाणां सह पार्थिवः ॥ प्रायादुत्तङ्कसहितो धुन्धोस्तस्य निवारणे तमाविशत्ततो विष्णुर्भगवान्स्वेन तेजसा । उत्तङ्कस्य नियोगात्तु लोकानां हितकाम्यया तस्मिन्प्रयाते दुर्धर्षे दिवि शब्दो महानभूत् । अद्यप्रभृत्येष नृपो धुन्धुमारो भविष्यति ७८३ ॥४१ ॥४२ ॥४३ ॥४४ ॥४५ ॥४६ ॥४७ ॥४८ ॥४६ ॥५० ने तुम्हारे इस उपकार कार्य में भगवान् विष्णु अपने तेजोबल से तुम्हारी सन्तुष्टि करेगें अर्थात् सहायता करेंगे । उस महान् असुर के मारे जाने पर सभी लोक स्वस्थ हो जायेंगे | हे पृथ्वीपति ! तुम उस महान् असुर के मारने में आज समर्थ हो । हे निष्पाप ! पूर्वकाल में भगवान् विष्णु ने यह वरदान दिया है कि महाबलवान् धुन्धु अल्प बल से अधीन नही किया जा सकता । अर्थात् इसे वश्य करने के लिये किसी महान् बलशाली की आवश्यकता है, हे पृथ्वीपाल ! संकड़ो वर्षों में भी इसे कोई पराजित नहीं कर सकता, उसका बल महान् है, देवगण भी उसे पराजित नही कर सकते १४१-४४॥ महात्मा उत्तङ्क के ऐसा कहते पर रजर्षि बृहदश्व ने धुन्धु के उपद्रवों को निर्मूल करने के लिये उन्हें अपने पुत्र कुवलाश्व को समर्पित करते हुए बोले । महर्षे ! मैं राजा हूँ, सभी का पालन करना हमारा धर्म है; परन्तु हम अस्त्र शस्त्र छोड चुके हैं, हे द्विजश्रेष्ठ ! यह हमारा पुत्र निस्सन्देह उस धुन्धु को मारने में समर्थ होगा ।' इस प्रकार धुन्धु के मारने के लिए सत्यप्रतिज्ञ राजा बृहदश्व ने अपने पुत्र कुवलाश्व को नियुक्त कर स्वयं तपस्या के लिये पर्वत की ओर प्रस्थान किया । इधर पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर धर्मात्मा महाराज कुवलाश्व ने अपने इक्कीस सहस्र पुत्रों को तथा महर्षि उत्तङ्क को साथ लेकर उस धुन्धु के निवारणार्थ प्रस्थान किया ४५ ४८ महर्षि उत्तम के प्रयत्न पूर्वक प्रार्थना आदि करने के कारण तथा लोक हित को भावना से भगवान् विष्णु स्वयं उस राजर्ष कुवलाश्व में अपने तेज सहित आविष्ट हुए । इस प्रकार, राजर्षि कुावलाइव ने जिस समय धुन्धु के निवारणार्थ प्रस्थान किया उस समय आकाश में चारों ओर से घोर शब्द होने लगे । और चारों ओर से यह आवाज आने लगी कि आज यह राजा