पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७३५

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७१४ वायुपुराणम् अतोऽन्यथा तु यः कुर्याम्मोहाच्छौचस्य संकरम् | पिशाचान्यातुधानांश्च फलं गच्छत्यसंशयम् शौचमश्रद्दधानस्य म्लेच्छजातिषु जायते । अयज्ञाश्चैव पापो वा तिर्यग्योनिगतोऽपि वा शौचेन मोक्षं कुर्वाणः स्वर्गवासी भवेन्नरः | शुचिकामा हि देवा वै देवैरेतदुदाहृतम् बोभत्समशुचि चैव वर्जयन्ति सुराः सदा । त्रीणि शौचानि कुर्वन्ति न्यायतः शुभकर्मणः ब्राह्मण्यायाऽऽतिथेयाय शौचायुक्ताय धोमते | पितृभक्ताय दान्ताय सानुकोशाय च द्विजाः तैस्तैः प्रीताः प्रयच्छन्ति पितरो योगवर्धनाः | मनसा काङ्क्षितान्फामांस्त्रैलोक्यप्रभवानिति ।।७८ ॥७५ ॥७६ ।७७ इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते श्राद्धकल्पो नामाष्टसप्ततितमोऽध्यायः ।।७८।। ॥७३ ॥७४ समय, इनके अतिरिक्त जो अज्ञानवश शौच संस्कार में व्यतिक्रम करते हैं उनके फल पिशाचों और यातुषानों को प्राप्त होते है, इसमें सन्देह नही ।७२-७३। जो शोच के आचारों एवं नियमों में अश्रद्धा रखते हैं, वे म्लेच्छ जाति मे उत्पन्न होते हैं । जो यज्ञादि को नहीं करते सर्वदा पाप कर्म में निरत रहते हैं, अथवा तिर्यक् योनियों में उत्पन्न होते हैं, वे भी शौच द्वारा अपने पापों से मुक्त हो स्वर्गवासी होते हैं | देवता लोग पवित्रता के इच्छुक रहते देवताओं ने ही शौच के ये आचार बतलाये हैं ॥७४-७५॥ देवगण सर्वदा वोभत्स आचरण करनेवाले, चंपवित्र लोगों को वजित रखते हैं । सत्कर्म परायण लोग न्यायतः सर्वदा तीन शुद्धि करते हैं । हे ऋषिवृन्द, ब्राह्मणादि की रक्षा करनेवाले, अतिथिपरायण पवित्रात्मा, बुद्धिमान्, पितरों में भक्ति रखने वाले, शान्त एवं कृपालु लोगों के योगवदूधंक पितरगण उनके किये गये सत्कर्मों से, प्रसन्न होकर मन से अभिलपित, त्रैलोक्य में प्राप्त होने वाले समस्त मनोरथ को पूर्ण करते हैं ।७६-७८। श्री वायुमहापुराण में श्राद्धकल्प नामक अठहत्तरवां अध्याय समाप्त ॥७८॥