पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६३३

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६१२ वायुपुराणम् ॥८१ ऊर्ध्वकेशं हरिच्छ्मश्रुं शिलासंह्ननं दृढम् | ह्रस्वकार्य सुवाहुं च महाकायं महाबलम् आकर्णदारितास्यं च लम्वत्र स्थूलनासिकम् | स्थूलोष्ठमण्ठदंष्ट्र च द्विजिह्व शङ्कुकर्णकम् ॥८२ पिङ्गलोद्वृत्तनयनं जटिलं पिङ्गलं तथा । महाकर्ण महोरस्कं कटिहीनं कृशोदरम् ॥ नखिनं लोहितग्रीवं सा कनिष्ठं प्रसूयते सद्यः प्रसूतमात्रौ तु विवृद्धौ च प्रमाणतः । उपभोगतमर्थाभ्यां शरीराभ्यामुपस्थितौ || सद्योजातविवृद्धाङ्गौ मातरं पर्यभूषताम् ज्यायांस्तयोस्तु यः क्रूरो मातरं सोऽम्यकर्षत | अब्रवीत्मातरायाहि भक्षार्थी क्षुधयादितः न्यषेधयत्पुनर्होनं ज्यायांसं तु कनिष्ठकः | अन्नदोत्सोऽसकृत्तं वै रक्षेमां मातरं खताम् ॥ बाहुभ्यां परिगृह्यनं मातरं तां व्यमोचयत् एतस्मिन्नेव काले तु प्रादुर्भूतस्तयोः पिता । तौ दृष्ट्वा विकृताचारी वसतो होत्यभाषत तो तु तं पितरं दृष्ट्वा बलवन्तौ त्वरान्वितौ । मातुरेव पुनश्चाङ्क प्रलपेतां स्वमायया अथाब्रवीदृषिर्भार्या मावाभ्यामुतवत्यसि । पूर्वमाचक्ष्व तत्त्वेन तथैवाऽऽभ्यां व्यतिक्रमम् ॥८३ ॥८४ ॥८५ ॥८६ ॥८७ ४८८ ॥८६ लोचन, ऊर्ध्वकेश, हरिच्छमधु (हरे वर्ण की दाढ़ीवाला, दृढ़ एवं शिला संहनन, (शिला के समान पुष्ट शरीर- वाला) ह्रस्वकाय, (छोटे कद का) सुबाहु, महाकाय, महावलिष्ठ, कानपयन्त फटे हुए भयानक मुखवाला, लम्बी भौहों वाला, स्थूल नासिकावाला, स्थूल ओष्ठवाला, माठ दाढोंवाला, दो जीभवाला शकु (कील) के समान कानोवाला, पिंगल वर्ण के उठे हुए नेत्रोवाला, जटाधारी पीले शरीरवाला, महाकर्ण महान् वक्षस्थल, कटि रहित, कृश उदरयुत, नखधारी लालवणं के कंधोवाला था। ऐसे महाभोषण कनिष्ठ पुत्र को खशाने उत्पन्न किया 1८०-८३१ ये दोनो पुत्र उत्पन्न होते ही अपने प्रमाण से बहुत अधिक बढ़ गये, और तुरन्त ही उपभोग में समर्थ शरीर से सम्पन्न होकर उपस्थित हुए । इस प्रकार अति शीघ्र लंबे शरीर एवं अंगोंवाले उन दोनों ने अपनी माता को अलंकृत किया । इन दोनों पुत्रों मे से जो ज्येष्ठ था, वह बडी क्रूर प्रकृति का था उसने अपनी माता को ही घमीटना प्रारम्भ किया और बोला, मातः ! मैं क्षुधा से पीड़ित हूँ मेरे भक्षण के लिये तुम यहां माओ । अपने ज्येष्ठ भाई के इस दुव्यंव्हार को देखकर छोटे भाई ने निषेध किया, और अनेक बार कहा कि अरे. मेरी माता खशा को तू छोड़ दे । इस प्रकार की बातें करते हुए उसने अपनी दोनों वाहुओं से पकड़कर अपनी माता को छुडा दिया १८४-८६ । ठीक इसी अवसर पर उन दोनो के पिता (कश्यप ) वही उपस्थित हो गये, और उनको यह करतूत देख बोले, हे दुराचारी पुत्रों ! ठहरो । इस प्रकार उन दोनो बलवानों ने पिता को आया देख अपनी माया के बल से ( अल्पकाय हो) शीघ्र ही माता की गोद मे पुनः लिपट गये।८७-८८ तब ऋषि अपनी पत्नी से बोले, 'हमें सबसे पहले यह सच-सच बतलाओ