पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६०३

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५८३ वायुपुराणम् मारोचात्फश्यपाद्विष्णुरदित्यां संचभूव ह | त्रिभिः क्रमैरिमाल्लाँकाञ्जित्वा विष्णुरुरुक्रमम् ॥१३५ प्रत्यपादयविन्द्राय देवेभ्यश्चैव स प्रभुः । इत्येतास्तनवस्तस्य व्यतीताः सप्त सप्तसु ॥ मन्वन्तरेष्यतीतेषु याभिः संरक्षिताः प्रजाः यस्माद्विष्टमिदं सर्वं वालनेनेह जायता | तस्मात्स वै स्मृतो विष्णुविशेर्धातोः प्रवेशनात् इत्येतद्ब्रह्मणश्चैव जामनस्य महात्मनः । एकत्वं च पृथक्त्वं च विशिष्टवं च कीर्तितम् देवतानामिहांशेन जायन्ते यास्तु देवताः । तासां तास्तेजसा वुद्धया श्रुतेन च वलेन च ॥ जायन्ते तत्समाश्चैव ता वै तेषामनुग्रहात् यद्यद्विभूतिमत्सत्सं श्रीमदूजितमेव वा । तत्तदेदावगच्छध्वं विष्णोस्तेजोंऽशसंभवम् स एवं जायतेंऽशेन केचिदिच्छन्ति मानवाः । ततोऽपरे ब्रुवन्तीममन्योन्यांशेन जायते एवं विवमानास्ते दृष्ट्वा तान्वै ब्रुवन्ति है | यस्मान्न विद्यते भेदो मनसश्चेतसच ह || तस्मादनुग्रहास्तेषां क्षेत्रज्ञास्ते भवन्त्युत एकस्तु प्रभुशक्त्या वै बहुधा भवतीश्वरः । भूत्वा यस्माच्च बहुधा भवत्येकः पुनस्तु सः ॥१३६ ॥१३७ ॥१३५ ॥१३६ ॥१४० ॥१४१ ॥१४२ ॥१४३ के गर्भ द्वारा (वामन रूप में) उत्पन्न होते है और अपने केवल तीन पगों द्वारा उन्होने समस्त लोकों को जीतकर समस्त देवताओ के साथ इन्द्र को अर्पित किया | व्यतीत हुए सात मन्वन्तरों में उस स्वयम्भू की चे सात मूर्तियाँ आविर्भूत हुईं, जिनके द्वारा प्रजावर्ग की रक्षा हुई |१३३-१३६॥ यतः उत्पन्न होकर वामन अपने शरीर द्वारा इस समस्त जगत् मे विष्ट ( प्रविष्ट) हो गये थे अतः प्रवेश अर्थवाले विश् धातु के अर्थ के अनुरूप वे विष्णु नाम से स्मरण किये जाते है । स्वयम्भू भगवान् ब्रह्मा, महात्मा वामन, एवं उनके एकत्व, पृथक्रुत्व, और विशिष्टत्व का वर्णन इस प्रकार कर चुका | इस पृथ्वीलोक में जिन-जिन देवता आदि के अशों से जो जो देवता उत्पन्न होते है वे अनुग्रह वश तेज, बुद्धि, शास्त्रज्ञान एव वल मे समान होकर उत्पन्न होते है ।१३७-१३६। इस जगत् में जो-जो ऐश्वर्यशाली, श्रीमान् अथवा प्रभावशाली जोव या पदार्थ दिखाई पड़ते है उन सब को भगवान् विष्णु के तेज एवं अश से प्रादुर्भूत हुआ समझो | वही अपने अश रूप में इस प्रकार उत्पन्न होता है | कुछ मनुष्य ऐसो इच्छा करते हैं। कुछ अन्य प्रकार के लोग है जो कहते है कि अन्य-अन्य अंशो से वह उत्पन्न होता है । उन उत्पन्न होनेवालो को देखकर इस प्रकार लोग मीमांसा करते है यतः मन और चित्त में कोई भेद नही है अतः वह सब उत्पत्तिकाय उसी के अनुग्रह से सम्पन्न होता है - ऐसा जो लोग समझते है वे क्षेत्रज्ञ होते है ।१४०-१४२। एक ही ईश्वर अपनी महामहिमामयी प्रभु शक्ति से अनेक रूपों में हो जाता है और अनेक रूपो मे होकर भी पुनः वह एक हो जाता है। इसलिये उसी आदि देव स्वयम्भु के तेजोभेद से सभी