पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५५८

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

द्विषष्टितमोऽध्यायः पुनः स्तुत्वा देवगणैः पुरंदरपुरोगमैः । सौवर्ण पात्रमादाय अमृतं दुदुहे तदा || तेनैव वर्तयन्ते च देवा इन्द्रपुरोगमा: नागेश्च स्तूयते दुग्धा विषं क्षीरं तदा महो। तेषां च वासुकिर्दोग्धा फाद्रवेया महोजसः नागानां वै द्विजश्रेष्ठ सर्पाणां चैव सर्वशः । तेनैव वर्तयन्त्युन्ना महाकाया महोल्बणाः ॥ तदाहारास्तदाचारास्तद्वीर्यास्तु तदाश्रयाः आमंपात्रे पुनर्दुग्धा त्वन्तर्धानमियं मही । वत्सं वैश्रवणं कृत्वा यज्ञैः पुण्यजनैस्तथा दोग्धा च जतुनाभस्तु पिता मणिवरस्य सः | यक्षात्मजो महातेजा वशी स सुमहाबलः || तेन ते वर्तयन्तीह परमषिरुवाच ह राक्षसैश्च पिशाचैश्च पुरुर्दुग्धा वसुंधरा । ब्रह्मोपेतस्तु दोग्धा वै तेषामासीत्कुबेरकः रक्षः सुमाली बलवान्क्षीरं रुधिरमेव च । कपालपात्रे निर्दुग्धा अन्तर्धानं च राक्षसैः ॥ तेन क्षोरेण रक्षांसि वर्तयन्तीह सर्वशः [ *राजतं पात्रमादाय पितृभिः स्तूयते महो । स्वधामृतं च पितृणामासीद्दोग्धाऽर्यमा तथा ॥ यमो वत्सोऽभवत्तेषां मासो ( सं ) तृप्तिस्तु सर्वदा ] ५३७ ॥१८१ ॥१८२ ॥१८३ ॥१८४ ॥१८५ ॥१८६ ॥१८७ ॥१८८ देवगणों ने वसुन्धरा को प्रार्थना कर सुषर्णमय पात्र लेकर पृथ्वी से अमृत का दोहन किया, उसी अमृत के भरोसे इन्द्रादि देवगण विद्यमान रहते है । लागों ने स्तुति कर विष रूप क्षीर पृथ्वी से दुहा, उनमे दुहने वाले बासुकि थे तथा उनके साथ कंद्र के सभी तेजस्वी पुत्रगण थे | हे द्विजश्रेष्ठ ! सभी नागों एव सर्पों में परम तेजस्वी, जो विशालकाय अति तीक्ष्ण विष वाले सर्पगण है, वे उसी विष से वर्तमान रहते है । उसी का आहार करते हैं उसी के अनुरूप आचार करते है, उसी के भरोसे पराक्रमशाली तथा उसी के याश्रय में आश्रित है । तदनन्तर पुनः पुण्यकर्त्ता यक्षों द्वारा अर्न्तधान होकर पृथ्वी का दोहन कच्चे पात्र में किया गया, जिसमे बछड़ा वैश्रवण नामक यक्ष था, दुहनेवाला अतुनाभ था, जो मणिवर नामक यक्ष का पिता था |१८९१-१८४३। वह यक्षपुत्र महान् तेजस्वी जितेन्द्रिय सभा महाबलवान् था । उसो क्षीर द्वारा वे लोग जीविका चलाते हैं । तदनन्तर राक्षसों और पिशाचो ने वसुन्धरा का पुनः दोहन किया। उनमे दुहने वाला ब्रह्मज्ञानी कुबेरक, बछड़ा सुमाली नामक बलवान् राक्षस तथा कीर के स्थान पर रक्त हुआ । राक्षसो ने कपाल मे अन्तर्धान होकर पृथ्वी का दोहन किया था । उसी क्षीर पर आज भी राक्षसगण सब ओर अपनी जीविका निर्वाहित करते हैं |१८५-१९८७ पितरों ने चाँदी के पात्र में पृथ्वी की स्तुतिकर दोहन किया, उनका अमृत स्वधा हुआ, दुहने वाले अर्यमा नामक

  • धनुश्चिह्नान्तर्गतग्रन्थः क. ग. घ. ड. पुस्तकेषु नास्ति ।

फा० – ६८