पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५३२

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एकषष्टितमोsध्याय: एवमेव तु विज्ञेयं व्यतीतानागतेष्विह | मन्वन्तरेषु सर्वेषु शाखाप्रणयनानि वै अतीतेषु अलोतानि वर्तन्ते सांप्रतेषु च । भविष्याणि च यानि स्युर्वर्ण्यन्तेऽनागतेष्वपि पूर्वेण पश्चिमं ज्ञेयं वर्तमानेन चोभयम् । एतेन क्रमयोगेन (ण) मन्वन्तरविनिश्चयः एवं देवाश्च पितर ऋषयो मनवश्च ये | मन्त्रैः सहोर्ध्व गच्छन्ति ह्यावर्तन्ते च तैः सह जनलोकात्सुराः सर्वे पशुकल्पात्पुनः पुनः । पर्याप्तकाले संप्राप्ते संभूता नैव [ ध ] नस्य तु अवश्यंभाविनाऽर्थेन संबध्यन्ते तदा तु ते । ततस्ते दोषवज्जन्म पश्यन्ते रागपूर्वकस् निवर्तते तदा वृतिस्तेषामादोषदर्शनात् । एवं देवयुगातीह दश कृत्वा दिवर्तते जनलोकात्तपोलोकं गच्छन्तीहानिवर्तनम् । एवं देवयुगानीह व्यतीतानि सहस्रशः ॥ निधनं ब्रह्मलोके वै गतानि मुनिभिः सह न शक्यमानुपूर्वेण तेषां वक्तुं सविस्तरान् । अनादित्वाच्च कालस्य असंख्यानाच्च सर्वशः मन्वन्तराण्यतीतानि यानि कल्पैः पुरा सह | पितृभिर्मुनिभिर्देवैः सार्ध सप्तर्षिभिश्च वै ॥ कालेन प्रतिसृष्टानां युगानां च निवर्तनम् - एतेन क्रमयोगेन (ण) कल्पमन्वन्तराणि तु | सप्रजानि व्यतीतानि शतशोऽथ सहस्रशः - ५११ ॥१२५ ॥१२६ ॥१२७ ॥१२८ ॥१२६ ॥१३० ॥१३१ ॥१३२ ॥१३३ ॥१३४ ॥१३५ सभी मन्वन्तरों में इसी प्रकार वैदिक शाखाओं का प्रणयन होता है । अतीत काल में जो ऋषिगण होते हैं वे वर्तमान काल में भी वर्तमान रहते है, एवं भविष्यत्काल में जो ऋषिगण उत्पन्न होगे वे भी वर्तमान काल में वर्णित होते है । अतीत द्वारा भविष्यत्काल को घटनाओ को जान लेना चाहिये इसी प्रकार वर्तमान द्वारा अतीत तथा भविष्य - दोनो की जानकारी होनी चाहिये - इसी क्रम द्वारा मन्वन्तरी का निश्चय करना चाहिये ।१२५-१२७ । देवता, पितर, ऋषि और मनु गणं सभी मत्रों के साथ ऊर्ध्व लोक को गमन करते हैं, और उन्ही मंत्रों के साथ पुन: इहलोक में वापस आते हैं। सभी देवगण इस मर्त्यलोक से पशुकल्प पर्यन्त पुनः पर्याप्त समय व्यतीत होने पर जन्म ग्रहण करते है, (?) । अवश्य घटित होनेवाले विधि के विधान से सम्बन्ध रख वे रागादि वश हो दोषपूर्ण जन्म का दर्शन करते हैं, अर्थात् विधिवश उन्हें भी पापयोनि में जन्म ग्रहण करना पड़ता है |१२८-१३०१ उनको यह परिपाटी अपने पापों के फलों का अनुभव कर लेने पर निवृत्त हो जाती है और इस प्रकार दस देवयुगों तक उन पापयोनियों में भ्रमण कर वे निवृत्त होते है | जनलोक से वे तपोलोक को जाते हैं, जहाँ से पुनः नही लौटते । इस प्रकार सहस्रों देवयुग इस पृथ्वी पर व्यतीत हो चुके है । मुनियो के साथ मृत्यु लाभ कर वहाँ से वे ब्रह्मलोक को जाते हैं। विस्तारपूर्वक उनका श्रमिक वर्णन काल के अनादि एवं असंख्य होने के कारण नही किया जा सकता । जो मन्वन्तर, प्राचीन काल मे कल्प तथा युगादि अपने समय में होनेवाले, पितरों, मुनियों देवताओ एवं सप्तर्षियों के साथ