पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५२९

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५०८ वायुपुराणम् जायमाने पिता पुत्रे पुत्रः पितरि चैव हि । एवं सतेत्याविच्छेदाद्वर्तयन्त्यायुगक्षयात् ॥ अष्टाशीतिसहस्राणि प्रोक्तानि गृहमेधिनाम् i अर्यस्णो दक्षिणा ये तु पितृयाणं समाश्रिताः । दाराग्निहोत्रणते वै ये प्रजाहेतवः स्मृताः गृहमेधिनां च संख्येयाः श्मशानान्याश्रयन्ति ते । अष्टाशीतिसहस्राणि निहिता उत्तरायणे, ये श्रूयन्ते दिवं प्राप्ता ऋषयो ह्य र्ध्वरेतसः । मन्त्रब्राह्मणकर्तारी जायन्ते हि युगक्षये. एवमावर्तमानास्ते द्वापरेपु पुनः पुनः । कल्पनां भाव्यविद्यानां नानाशास्त्रकृतः क्षये ॥ + क्रियते तैविदरणं त्रेतादौ संयुगे प्रभुः www भविष्ये द्वापरे चैव द्रौणिद्वैपायनः पुनः । वेदव्यासो ह्यतीतेऽस्मिन्भविता सुमहातपाः भविष्यन्ति भविष्येषु शाखा प्रणयनाति तु | तस्मै तद्ब्रह्मणा ब्रह्म तपसा व्याप्तमव्ययम्- तपसा कर्ज संप्राप्तं कर्मणा हि ततो यशः | यशसा प्राप्य सत्यं हि सत्येनाप्तो हि चाव्ययः अव्ययादमृतं शुक्रममृतात्सर्वमेव हि । ध्रुवमेकाक्षरमिदं स्वात्मत्येव व्यवस्थितम् ॥ बृहत्त्वाव हणाच्चैव तद्ब्रह्म त्यभिधीयते IIεÉ ॥१,०० ॥१०१ .॥१०२ ॥१०.३ २ ॥१०४ -॥१०५ ॥१०६ ।१०७ से और पिता पुत्र से जन्म ग्रहण करता है) इस प्रकार विना विच्छेद (काल व्यवधान) के वे ऋषिगण युगक्षय पर्यन्त वर्त्तमान रहते हैं | गृहस्थाश्रम में रहनेवाले मुनियों की संख्या अठासी सहस्र कही गई है ।६८-६९ सूर्य के उत्तरायण होने पर जो मुनिगण पितृयाण (पितरों का मार्ग ) का आश्रय लेते है, एवं स्त्री के साथ सम्बन्ध करते तथा अग्निहोत्र के उपासक होते है, व सन्तानोत्पत्ति के लिये कहे गये हैं। ये गृहस्थाश्रमियो के भीतर गिने जाने योग्य है । इसके अतिरिक्त जो सूर्य के उत्तरायण होने पर प्राण त्याग कर श्मशान का आश्रय लेते हैं, उन मुनियो को सख्या अठासो सहस्र है । जो ऊर्ध्वरेता (अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रतपरायण ) ऋषि- गण उत्तरायण में मृत्यु प्राप्त कर स्वर्ग को प्राप्त करते सुने जाते हैं वे युग समाप्ति के अवसर पर मंत्र एवं ब्राह्मण भाग के कर्त्ता के रूप मे पुनः जन्म ग्रहण करते हैं । इस प्रकार द्वापर युग मे चक्राकार करते हुए वे विविध शास्त्रकर्त्ता ऋषिगण वारम्वार जन्म ग्रहणकर भाष्य विद्या आदि का प्रवर्त्तन करते है । एवं त्रेतादि युगों में उन विद्याओ का विवरण प्रस्तुत करते है | १००-१०३ | भविष्य द्वापर युग में परमतपस्वी द्रौणि द्वैपायन वेदव्यास उत्पन्न होगे, उनके द्वारा भविष्य मे वेदो को विभिन्न शाखाओं का प्रणयन होगा। उन्हें परम तपस्या, द्वारा अविनाशी ब्रह्मपद की प्राप्ति होगी | तपस्या द्वारा कर्म की प्राप्ति होती है, कर्मों से श मिलता है, यग से सत्य की प्राप्ति कर सत्य द्वारा अव्यय शाखत पद को प्राप्ति होती है, इस अव्यय पद-से अमृत, अमृत से शुक्र अथवा समस्त पदार्थो की प्राप्ति होती है | एकमात्र अक्षर ब्रह्म ही अपनी अन्तरात्मा में व्यवस्थित रूप से विद्यमान है, वह अति वृहत् होने एवं समस्त चराचर जगत् का पालन करने के कारण + इदमधं नास्ति क. घ. पुस्तकथोः |