पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५२६

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एकषष्टितमोऽध्यायः तथा चरणविद्यानां प्रमाणं संहितां शृणु | षट्साहस्रगृचामुक्तमृचः षड्विंशतिः पुनः एतावदधिकं तेषां यजुः कामं विवक्ष्यति एकादश सहस्राणि दश चान्या दशोत्तराः | ऋऋचां दश सहस्राणि अशीतित्रिशतानि च सहस्रमेकं मन्त्राणामृचामुक्तं प्रमाणतः । एतावद्भृगुविस्तारमन्यच्चार्थावकं बहु ऋचामथर्वणां पञ्च सहस्राणि विनिश्चयः | सहस्रमन्यद्विज्ञेयसृषिभिविशतं विना, एतद्‌ङ्गिरसा प्रोक्तं तेषामारण्यकं पुनः । इति संख्या प्रसंख्याता शाखाभेदास्तथैव च कर्तारश्चैव शाखानां भेदे हेतुस्तथैव च । सर्वमन्वन्तरेष्वेवं शाखाभेदाः समाः स्मृताः प्राजापत्या श्रुतिनित्या तद्विकल्पास्त्विमे स्मृताः | अनित्यभावाद्देवानां मन्त्रोत्पत्तिः पुनः पुनः मन्वन्तराणां क्रियते सुराणां नामनिश्चयः । द्वापरेषु पुनर्भेदाः श्रुतीनां परिकीर्तिताः एवं वेदं तदा न्यस्य भगवानृषिसत्तमः । शिष्येभ्यश्च पुनर्दत्त्वा तपस्तप्तुं गतो वनम् ॥ . तस्य शिष्यप्रशिष्यैस्तु शाखाभेदास्त्विमे कृताः . अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्याय विस्तरः | धर्मशास्त्रं पुराणं च विद्यास्त्वेताश्चतुर्दश: १०५ ॥६६ १७० ( ॥७१ ॥७२ ॥७३ ॥७४ ॥७५ ॥७६ ॥७७ .॥७८ संख्याये कही गई है । इसके उपरान्त चरणविद्या की सहिता तथा उसके प्रमाण को सुनिये । इस चरणविद्या की कथाओ की संख्या छः सहस्र छब्बीस है। अब इसके उपरान्त यजुः के विषय मे विस्तारपूर्वक बतला रहा हूँ। ६६-६६। ग्यारह सहस्र बीस यजुर्वेद की संख्या है, दस सहस्र तीन सौ अस्सी ऋचाओं की तथा

" एक सहस्र मंत्रों को ऋक संख्या का प्रमाण है । इतनी हो भृगुं द्वारा विस्तारित बहुतेरी अथर्व की ६. संहिताएँ है । अंथर्व की ऋक् संख्या पाँच सहस्र निश्चित हुई है, एक सहस्र में बीस कम अन्य ऋचाओं को 7, 1 ● "संख्या ऋषि लोग और बतलाते हैं । यहं अंगिरा ऋषि के कहे हुए अथर्व के मंत्री की तथा आरण्यक की संख्या है । इस प्रकार वेदों के मंत्रों एवं ऋचाओं की संख्या गाखा भेद, शाखाओ के कर्ता एव उनके पारस्परिकं भेद के कारण आदि को बतला चुका | सभी मन्वन्तरो मे वेदों के शाखाविभाग एक समान स्मरण किये गये है|७०-७४ प्रजापति की श्रुति नित्य है, उसके विकल्प ये ही कहे जाते है । देवताओं पुनः मंत्रोत्पत्ति होती है, मन्वन्तरों के भेद से देवताओं के नाम E के अनित्य (विनश्वर) होने के कारण पुनः का निश्चय होता है । J जो ऊपर श्रुति के भेद बतलाये गये है, वे प्रत्येक द्वापर युग में कहे गये हैं । उस 1 द्वापर युग में इस प्रकार वेदों का विभाग करके ऋषिश्रेष्ठ व्यास अपने शिष्यो को उसे सौपने के बाद तपस्या करने के लिए जङ्गल को प्रस्थित हुए। उनके शिष्यों तथा शिष्यों के शिष्यों ने इन उपर्युक्त वैदिक शाखाओं का इस प्रकार विभाग किया। छहो वेदाङ्ग ( शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द ओर ज्योतिष) चारों फा०-६४