पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५०८

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एकोनषष्टितमोऽध्यायः ४८७ निरू२)पमाश्व ते विप्रा वायुना स्थापिताश्च ये । उपमा चैव देवेशि विधेया ब्राह्मणस्य तु] १३० (+ सुद्युम्नाश्वाष्टमश्चैव नवमोऽथ बृहस्पतिः । दशमस्तु भरद्वाजो मन्त्रब्राह्मणकारकाः ॥१३१ एते चैव हि कर्तारो विधर्मध्वंसकारिणः )। लक्षणं ब्रह्मणश्चैतद्विहितं सर्वशाखिनाम् ॥१३२ हेतुहतेः स्मृतो धातोर्यन्निहन्युदितं परैः । अथ वार्थपरिप्राप्तेहिनोतेर्गतिकर्मणः १३३ तथा निर्वचनं ब्रूयाद्वाक्यार्थस्यावधरणम् । निन्दां तमाहुराचार्या यद्दोषन्निन्द्यते वचः ॥१३४ प्रपूर्वाच्छंसतेर्धातोः प्रशंसा गुणवत्तया । इदं त्विदसिदं नेदनित्यनिश्चित्य संशयः १३५ इदमेव विधातव्यमिमित्ययं विधिरुच्यते । कस्यस्यान्यस्य चोक्तत्वाद्बुधाः परकृतिः स्मृता ॥१३६ यो ह्यत्यन्तपुरोक्तश्च पुराकल्पः स उच्यते । पुरा विनान्तवाचित्वात्पुराकल्पस्य कल्पना ॥१३७ मन्त्रब्राह्मणक्कल्पैस्तु निशमैः शुद्धविस्तरैः। अनिलित्य कृतामाहुर्यवधारणकल्पनाम् १३८ केवल उन्हीं ब्राह्मण से ही उनकी उपमा दी जा सकती है, अर्थात् उनके समान वे स्वयम् है,१ अन्य कोई नहीं”उन मंत्रकर्ता ऋपियो मे सुद्युम्न आठवे, वृहस्पति नवे तथा भरद्वाज दसवें ऋषि है, जो सब के । सब मंत्र एवं ब्राह्मण भाग की रचना करने वाले तथा विधर्म के विध्वंस करने वाले है । सब शास्त्रों के मर्मज्ञ मनीषियों ने ब्राह्मण के यही लक्षण कहे है ।१३०१३२ हि धातु से हेतु शब्द की निष्पत्ति कही जाती है, जिसका अर्थ है, दूसरे के व्यक्त किये गये मत का प्रतिवाद या खण्डन करना अथवा एक दूसरे हि धातु से, जिसका अर्थे गमन करना है, हेतु शब्द की निष्पत्ति होती है; जिसके द्वारा दूसरे के व्यक्त किये गये मत में दोषापण करके अपने मत का निश्चय किया जाय, वह हेतु है । आचार्य लोग केवल दोष प्रदर्शन पूर्वक दूसरे के वाक्य की भर्सना या स्पष्ट शब्दों में निन्दा करने को निन्दा कहते हैं । प्र उपसर्ग पूर्वक शंस् धातु से शब्द को निष्पत्ति होती है, जिसका अर्थ है गुणवत्ता प्रकट करना । यह वस्तु प्रशंसा यह है यह वस्तु यह नहीं है, इस प्रकार का अनिश्चय करना संशय कहा जाता है । यही करना चाहिये-इस प्रकार के निश्चयात्मक वाक्य को विधि कहते है। किसी दूसरे द्वारा उक्त होने के कारण उसको (उस विवि को) विद्वानों ने परकृति कहा है ।१३३१३६। जो अत्यन्त प्राचीनकाल व्यतीत हो चुका है, उसे पुराकल्प कहते हैं, पुरा शब्द के प्राचीन अर्थों के द्योतक होने के कारण पुराकल्प शब्द की निष्पत्ति हुई। उस पुराकल्प में घटित होनेवाली घटनाएँ शुद्धसुविस्तृत मंत्र ब्राह्मणकल्प निगम आदि द्वारा निश्चित +धनुश्चिह्न्तर्गतग्रन्थः नास्ति ख. ग घ ङ. पुस्तकेषु नास्ति । १. कई मूल पुस्तकों में " " चित्रों से अङ्कित तक का पाठ नही है, जो समुचित प्रतीत होता है । क्योंकि ऋषियों की सातवीं संख्या के बीच में इस कथा का कोई सम्बन्ध ठीक-सा नहीं ऊँचता । पर अधिकांश पुस्तकों के पाठ के अनुरोध पर मैंने इस असम्बद्ध अंश का भी अनुवाद कर है । अनुवादक । दिया ।