पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४८५

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

४६४ वायुपुराणम् ।४० संक्षोभो जायतेऽत्यर्थं कलिमासाद्य वै युगम् । नाधीयन्ते तदा वेदा न यजन्ते द्विजातयः ।। उत्सीदन्ति नराश्चैव क्षत्रियाः सबिशः क्रमात ॥३८ शूद्राणामन्ययोनेस्तु संबन्धा ब्राह्मणैः सह । भवन्तीह कलौ तस्मिञ्शयनासनभोजनैः ३६ राजानः शूद्रभूयिष्ठः पाषण्डानां प्रवर्तकः । ध्र णहत्याः प्रजास्तत्र प्रजा एवं प्रवर्तते आयुर्मेधा बलं रूपं कुलं चैव प्रहीयते । शूद्रश्च ब्राह्मणाचाराः शूद्र चाराश्च ब्राह्मणाः ।।४१ राजवृत्ते स्थिताश्चौराश्चौरवृत्ताश्चं यथवाः। भृत्याश्च नष्टसुहृदो युगान्ते पर्युपस्थिते ॥४२ अशलिन्योऽन्नताश्चापि स्त्रियो मद्यामिषप्रियः । मायामशा भविष्यन्ति युगान्ते प्रत्युपस्थिते ॥४३ श्वापदप्रबलत्वं च गवां चैवाप्युपक्षयः। साधूनां विनिवृत्तिश्च विद्यात्तस्मिन्कलौ युगे तदा सूक्ष्मो महोदर्को दुर्लभो दानमूलवान् । चतुराधमशैथिल्याद्धर्मः प्रविदलिष्यति ४५ तदा ह्यल्पफला देवी भवेद्धृतिर्महीयसी। शूद्रस्तपश्चरिष्यन्ति युगान्ते प्रत्युपस्थिते ४६ तदा हकहितो धर्मो द्वापरे यश्च नासिकः। त्रेतायां वत्सरस्थश्च एकान्नादतिरिच्यते ॥४७ अरक्षितारो हर्तारो वलिभागस्य पार्थिवाः । युगान्तेषु भविष्यन्ति स्वरक्षणपरायणः ॥४४ I४८ द्विजातिवर्ग न तो वेदों का अध्यन करते हैं और न ठीक से यज्ञों का अनुष्ठान ही करते है तथा क्षत्रिय वंश्यो। समेत सभी मनुष्य नष्ट होने लगते है ।३५-३८। इस कलिकाल में शूद्र एवं अन्यज वर्गों के साथ ब्राह्मणों या शयन, आसन एवं भोजनदि मे सम्वन्ध स्थापित हो जाता है । राजा लोग अधिकतर शुद्र जाति के होते हैं, ओर पाखण्ड को बढ़ानेवाले होते हैं, प्रजावनं मे गर्भ हत्या-आदि घोर पाप होते रहते है । सभी लोगों की आयु बुद्धि, वल, रूप, एवं कुल का विनाश हो जाता है, शूद्र लोग ब्राह्मणो की भांति एवं ब्राह्मण लोग शूद्र की भाँति आचारव्यवहार करने लगते है । इसी प्रकार चोर लोग राजाओं की भाँति प्रजावर्ग पर शासन एवं दण्डादि की व्यवस्था करते है और राजा लोग चोरों की तरह चोरी से प्रजा के घनादि का अपहरण करते हैं । उस कलिकाल में नौकर लोग स्वामि-भक्ति से रहित हो जाते हैं ।३९-४२। स्त्रियाँ अतिशय दुःशील व्रतादि मे निष्ठा न रखनेवाली, मदिरा एव मांस को पसन्द करनेवाली, केवल मायाविनी होने लगती है, हिंस्र जीवो का उस कलियुग में प्रावाल्य एवं गओ का ह्रास होने लगता है । उस कलियुग मे साधु प्रकृति के लोगों का एक प्रकार से सर्वथा अभाव ही समझना चाहिये। इस प्रकार उस कलिकाल में सूक्ष्म किन्तु महान् फल देनेवाला, अतिशय दुर्लभ दानमूलक धर्म चारों आश्रमों के शिथिल होने के कारण विचलित हो जायगा ।४३४५उस समय अति प्रभावशालिनी पृथ्वी अल्प फलदायिनी, शूद्र लोग तपस्या मे निरत हो आयंगे, किन्तु उस युग का एक दिन का धर्म द्वापर के एक मास एवं त्रेता के एक वर्ष के धर्म के समान फलदायी होगा। उस युगान्तकाल में राजा लोग केवल अपनी रक्षा मे तत्पर रहकर प्रजावर्ग के अरक्षक