पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४४६

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४२७ चतुष्पञ्चाशोऽध्यायः गवां शतसहस्रस्य सम्यग्दत्तस्य यत्फलम् । तत्फलं भवति श्रुत्वा विभोर्विव्यामिमां कथाम् ॥११३ ॥ पादं वा यदि वाऽप्यर्ध श्लोकं श्लोकार्धमेव वा । यस्तु धारयते नित्यं रुद्रलोकं स गच्छति ॥११४ +(इतिहासमेनं गिरिराजपुत्रि मया सुतुष्टेन । तवाम्बुजेक्षणं निवेदितं पुण्यफलादियुक्तं मया च गीतं चतुराननेन) कथामिमां पुण्यफलादियुक्तां निवेद्य देव्याः शशिबद्धमूर्धजः। वृषस्य पृष्ठेन सहोमया प्रभुर्जगाम किष्किन्धगुहां गुहप्रियः क्रान्तं मया पापहरं महापदं निवेद्य तेभ्यः प्रददौ प्रभञ्जनः। अधीत्य सर्वं त्वखिलं सलक्षणं जगाम आदित्यपथं द्विजोत्तमाः ॥११५ ११६ ११७ इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते नीलकण्ठस्तवो नाम चतुष्पञ्चाशोऽध्यायः ॥५४॥ विधान पूर्वक एक लाख गौओं के दान करने से जो पुण्य होता है, वह महादेव की इस दिव्य कथा को सुनने से प्राप्त होता है। सम्पूर्ण, आधा या एक चरण है जो इस कथा का नित्य पाठ करता है, वह शिवलोक को जाता है ।११३-११४पार्वती ! हमने चतुरानन ब्रह्मा के प्रति प्रसन्न होकर पुण्य फल देने वाली इस कथा को कहा था । वही आज तुम्हारे आगे भी कही गई है । इसके बाद कातिपेय को प्यार करने वाले चन्द्रशेखर महादेव इस पुण्य फल देने वाली कथा को पार्वती से कहकर और उनके साथ नन्दी पर सवार होकर कि डिकन्धक गुहा की ओर चले गये । ब्राह्मणों ! वायुदेव पाप नाश करने वाली, महापद देने वाली, मुलक्षण इस कथा को मुनियों से कहकर आदित्य पथ की ओर चले गये और हमने भी इस कथा को तदनुरूप ही आप लोगों से कह दिया ।११५-११७ श्रीवायुमहापुराण का नीलकण्ठस्तुति नामक चौवनवाँ अध्याय समाप्त ।५४।। +धनुश्चिह्न्तगतग्रन्थः कः पुस्तके नास्ति ।