पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४२८

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

त्रिपञ्चाशोऽध्यायः ४०६ दिव्यानां पार्थिवानां च नैशानां चैव सर्वशः । आदानान्नित्यमादित्यस्तमसां तेजसां महान् ॥५३ सुवति स्पन्दनार्थं च धातुरेष विभाव्यते । सवनात्तेजसोऽयां च तेनासौ सविता मतः ।५४ बह्वर्थश्चन्द्र इत्येष ह्वदने धनुरिष्यते । शुक्लत्वे चामृतत्वे च शीतत्वे च विभाव्यते ।।५५ सर्याचन्द्रमसोदिव्ये मण्डले भास्वरे खगे । ज्वलत्तेजोभये शुक्ले वृत्तकुम्भनिभे शुभे ५६ घनतोयात्मकं तत्र मण्डलं शशिनः स्मृतम् । घनतेजोमयं शुक्लं मण्डलं भास्करस्य तु ५७ विशन्ति सर्वदेवस्तु स्थानान्येतानि सर्वशः । मन्वन्तरेषु सर्वेषु ऋक्षसूर्यग्रहाश्रयाः ५८ तानि देवगृहाण्येव तदाख्यास्ते भवन्ति च । सौरं सूर्यो विशः स्थानं सौम्यं सोमस्तथैव च ॥५९ शौक्रे शुक्रो विशः स्थानं षोडशाचः प्रतापवान् । वृहद्बृहस्पतिश्चैव लोहितं चैव लोहितः ।। शानैश्चरं तथा स्थानं देवश्चैव शनैश्चरः ॥६० आदित्यरश्मिसंयोगात्संप्रकाशात्मिकाः स्मृताः । नवयोजनसाहस्रो विष्कम्भः सवितुः स्मृतः ॥६१ त्रिगुणस्तस्य विस्तारो मण्डलं च प्रमाणतः। द्विगुणः सूर्यविस्ताराद्विस्तारः शशिनः स्मृतः ॥६२ तुल्यस्तयोस्तु स्वर्भानुभूत्वाऽऽधस्तात्प्रसर्पति । उट्टस्य पाथवच्छायां निर्मितो मण्डलकृतिः ॥६३ कहलते है और शुक्ल होने के कारण भी इनका नाम तारका पड़ा है। दिव्य, पार्थिव और निश सम्वन्धी अन्धकार का सब प्रकार से विनाश करने के कारण महान् तेजोराशि का नाम आदित्य हुआ है ।५१-५३। "सु " धातु का अर्थ होता है, स्फुरण या क्षरण । तेज और जल का क्षरण करने के कारण सूर्य सचिता भी कहलाते हैं । 'चदि भ्रातु का आह्वादन, शुक्लत्व, अमृतत्व और शतत्व आदि अनेक अर्थ है । इसी धातु से चन्द्र शब्द बना है । चन्द्र और सूर्य का दिव्य मण्डल, आकाश में वर्तमान है देदीप्यमान, तेजोमय, जाज्वल्यमानशुक्ल और-घड़े की तरह गोल है ।५४-५६। उन मण्डलो मे जलप्रधान चन्द्रमडल और तेजः प्रधान उज्ज्वलाकार सूर्यमंडल है । सभी मन्वन्तरो में नक्षत्रग्रहो के साथ देवगण इन स्थानो में प्रवेश करते है । इसीलिये ये देवगृह कहलाते है । जो जिस घर में आश्रय प्राप्त करत, उसका वही नाम कहलाता है । सूयं सौर स्थान में, सोम सौम्य स्थान में, शुक्र शक्र स्थान में प्रवेश करते है । शुक सोलह किरण वाले और प्रतापवान् है। बृहस्पति इत् , लोहित ) स्थान में(मंगललोहित स्थान में और शनैश्चर देव श नैश्चर स्थान में प्रवेश करते है ।५७-६० वे प्रकाशित हो रहे है । सूर्य मंडल का विष्कम्भविस्तार नौ हजार योजनो सभी स्थान सूर्य किरण द्वारा की है और मण्डल का विस्तार-प्रमाण उससे तिगुना अधिक है । सूर्य के विस्तार से चन्द्रमा का विस्तार दूना हैं। के नीचेनीचे की इसके बराबर राहु भी इन दोनों चलता है । वह मंडलाकार राहु पृथ्वी छाया द्वारा निमित हुआ है ।६१-६३। राहु का अन्धकारमय वृहत् स्थान है । यह पूर्णिमा को मूयमंडल से निकलकर फा०-५२