पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४१२

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एकपञ्चाशोऽध्यायः ३६३ कीलासक्तो यथा रज्जुभ्रमते सर्वतोदिशम् । हसतस्तस्य रश्मी तौं मण्डलेषुत्तरायणे ७२ वर्धते दक्षिणे चैव असतो मण्डलानि तु। ध्रुवेण संगृहीतौ तु रश्मी वै नयतो रविम् ॥७३ आकृष्येते यदा तौ वै ध्रुवेण समधिष्ठितौ। तदा सोंऽभ्यन्तरं सूर्यो भ्रमते मण्डलानि तु ।।७४ अशीतिमण्डलशतं काष्ठयोरुभयोश्वरन् । ध्रुवेण मुच्यमानाभ्यां रश्मिभ्यां पुनरेव तु ७५ तथैव बाह्यतः सूर्यो भ्रमते भण्डलानि तु । उद्वेष्टयन् स वेगेन मण्डलानि तु गच्छति ७६ इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्तेऽनुषङ्गपादे ज्योतिष्प्रचारो नामैकपञ्चाशोऽध्यायः ।।५१।। अथ द्विपञ्चाशोऽध्यायः ज्योतिष्प्रयः सूत उवाच स रथोऽधिष्ठितो देवैरादित्यैऋषिभिस्तथा । गन्धर्वैरप्सरोभिश्च ग्रामणीसर्पराक्षसैः ॥१ है ॥७०-७१। चूंटे से बंधा हुआ धागा जैसे चारों दिशाओं में घूमता है, उसी प्रकार रश्मियाँ घूमती है; किन्तु उत्तरायण होने पर किरणें कुछ घट जाती है और दक्षिणायन होने पर वढ़ जाती है । इस तरह मण्डलाकार घूमते हुये की .खीचता तब सूर्य खिच जाते है । ध्र .व जब उन दोनों किरणों रथ किरणों को ध्र व जब है, भी को खींचता है, तब सूयं भीतरी मण्डल में घूमते है ।७२-७४। उस समय सूर्य दोनो दिशाओं के एक सौ अस्सी मण्डलों का चक्कर लगाते है । फिर जब ध्व व दोनों रश्मियों को जोड़ देता है, तब सूर्य बाहरी मण्डल में घूमने लगते है । उस समय वे वेग से मण्डलो को आधृत करते हुये घूमते है |७५-७६॥ थी।वायुमहापुराण का ज्योतिष्प्रचार नामक एकावनर्वा अध्याय समाप्त ।५१। ऽध्या ५ ३ सूतजी बोले-उस रथ पर देव, आदित्य, गन्धर्व, अप्सरा, ग्रामणी (शिल्पी), सर्प और राक्षसी । फo.