पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/३२६

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द्विचत्वारिशोऽध्यायः ३०७ ३२ ।।३३ कलिङ्गशिखराद्भ्रष्ट रुचके निपपात सा । रुचकान्निषधं प्राप्ता ताम्राभं निषधादपि ॥२e ताम्राभ्रशिखराभ्रष्टा गता श्वेतोदरं गिरिम् । तस्मात्सुसूलं शैलेन्द्र वसुधारं च पर्वतम् ॥३० हेमकूटं गता तस्माद्देवशुङ्ग ततो गता । तस्मागता महशैलं ततश्वापि पिशाचकम् ३१ पिशाचकाच्छैलवरात्पवकूटं गता पुनः। पवकूटातु कैलासं देवावासं शिलोच्चयम् तस्य कुक्षिषु विभ्रान्ता नैककन्दरसानुषु । [ • हिमवत्युत्तमनदी निपपाताचलोत्तमे सैवं शैलसहस्राणि दारयन्ती महानदी ।] स्थलीशतान्यनेकानि प्लावयन्स्याशुगामिनी ३४ वनानां च सहस्राणि कन्दराणां शतानि च । स्त्रवयन्ती महाभागा प्रयाता दक्षिणोदधिम् ॥।३५ रस्या योजनविस्तीर्णा शैलकुक्षिषु संवृता । या धृता देवदेवेन शंकरेण महात्मना ३६ पावनी द्विजशार्दूल घोराणामपि पाप्मनाम् । शंकरस्याङ्गसंस्पर्शान्महादेवस्य धीमतः । द्विगुणं पवित्रसलिला सर्वलोके महानदी ३७ अनुशैलं समन्ताच्च निर्गता बहुभिर्मुखैः । अथोऽन्येनाभिधानेन ख्याता नद्यः सहस्रशः ३८ तस्माद्धिमवतो गङ्गा गता सा तु महानदी । एवं गङ्गेति नाम्ना हि प्रकाशा सिद्धसेविता ॥३e के शिखर पर गिरती है। वहाँ से उतर कर रुचक पर गिरती है । रुचक से निषध पर और निषध से ताम्राभ पर गिरती है २८२६ फिर तान्नाभ से श्वेतोदर पर्वत पर, वहीं से सुसूल पर्वत पर, सुमूल से वसुधार पर, वसुंधार से हेमकूट, पर हेमकूट से देवभृङ्ग पर देवश्रुङ्ग से शैलश्रेष्ठ विशाचक पर, पिशाचक से पंचकूट पर और पंचकूट से देवनिवास कैलाश पर गिरती हुई एवं उसके शिखरकन्दरामय पाश्र्वे देश से बहती हुई ‘चलो तम हिमालय पर गिरती है ।३०-३३वह महानदी हजारों शैलों को फाड़ती हुई, संकडों स्थलों को सीचती हुई, हजारों वनों को और सैकड़ों करदराओो को भिगोती हुई तीव्र वेग से दक्षिण समुद्र मे गिरती है ।३४-३५॥ जो रम्य नदी योजन परिमित चौड़ी और शैलकुक्षि में घिरी हुई है, महारमा देवाधिदैवशर ने जिसको अपने सिर पर धारण किया है, वह घोर प पियों को भी पवित्र करने वाली एव श्रीमान् शङ्कर के अंग-स्पश से द्विगुण , पश्वित्रहै । पविश्र-सलिला महानदी गंगा ३६३७ ब्राह्मणो ! यह हिमालय पर्वत के चारों ओर से निकलकर अनेक शाखाओं में विभक्त हो गयी है, जो भिन्नभिन्न नामों से सहस्रसहस्र नदी रूपों में विख्यात है । यह महानदी गंगा नाम से प्रसिद्ध है। जो सिंहों से सेवित है। जिन देशों के बीच से होकर यह रुद्र, ॐ धनुश्चिह्नान्तर्गतग्रन्थो घ पुस्तके नास्ति ।