पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/३२३

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३०४ It ते लोकपदमें श्रुतिभिः पमित्यभिधीयते । एष सर्वपुराणेषु क्रमः सुपरिनिश्चितः ॥४० इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्तेऽनुषङ्गपादे भुवनविन्यासो नाम चत्वारिंशोऽध्यायः ।।४१। अथ द्विचत्वारिंशोऽध्यायः नवनवत्यः सत उचच १ २ सरोवरेभ्यः पुण्योदा देवनद्यो विनिर्गताः । महौघतोया नद्यश्च तः शृणुध्वं यथाक्रमम् आकाशाम्भोनिधेर्योऽसौ सोम इत्यभिधीयते । आधारः सर्वभूतनां देवानाममृताकरः तस्मात्प्रवृत्ता पुण्योदा नदी ह्याकाशगामिनी । सप्तमेनानिलपथा प्रयाता विमलोदका सा ज्योतिषि निवर्तन्ती ज्योतिर्गणनिषेविता। ताराकोटिसहस्राणां नभसश्च समायता ३ ॥४ जगत् है । इसी को लोकपद्म कहते है और श्रुति इसको पद्म बहती है । सभी पुराणों में पृथ्वी के वर्णन का क्रम इसी प्रकार है ।८६-६०॥ श्री वायुमहापुराण का भुवन विन्यास नामक एकतालीसवाँ अध्याय समाप्त ।।४१।। अध्याय ४२ भुवनविन्यास सूतजी बोले--सरोवरों से जो-जो जिस प्रकार पवित्र जलवाली देवनदियाँ और गम्भीरजल वालो। नदियाँ प्रवाहित हुई है, उनका वर्णन यथाक्रम से कर रहा हूँ सुनिये-जो आकाश-समुद्र के चन्द्र कहे जाते है, जो जीवो के आधार और जो देवताओं के सुधारक है, उन्ही से एक विमल जलवाली पुण्य सलिला आकाश गामिनी नदी निकलकर सप्तम वायुपथ की ओर गई है ।१-३ यह नदी ज्योतिष्मण्डल पर्यन्त प्रवाहित होती है और करोड़ो तारिकाओं तथा ज्योतिष्क पिण्डों से व्याप्त है। आकाश मे फैली हुई आकाशपथ मे विचरण