पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२८३

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२६४ II४७ ।।४८ HI४e महाद्वीपास्तु विख्याताश्चत्वारः पत्रसंस्थिताः । ततः फणिकसंस्थान मेरुर्नाम महाबलः ४६ नानावर्णेषु पाश्र्वेषु सर्वतः श्वेत उच्यते । पीतं तु दक्षिणं तस्य शृङ्गं कृष्णं तथाऽपरम् उत्तरं तस्य रक्तं वै शोभिवर्णसमन्वितम् । मेरुस्तु शोभते शुभ्रो राजवत्स तु धिष्ठितः तरुणादित्यवर्णाभो विधूम इव पावकः । चतुरशीतिसाहस्र उत्सेधेन प्रकीfततः प्रविष्टः षोडशाधस्ताद्विस्तृतस्तावदेव तु । स शरावस्थितः पूर्वं द्वात्रिंशन्मूध्नि विस्तृतः ॥५ ५० विस्तारात्त्रिगुणश्चास्य परिणाहः समन्ततः । [*मण्डलेन प्रमाणेन यत्र धं तु तदिष्यते ॥५१ चत्वारिंशत्सहस्राणि योजनानां +] समन्ततः। अष्टाभिरधिकानि स्युस्त्र्यन्न ज्ञानं प्रकीर्तितम् ॥५२ चतुरत्र ण मानेन परिणाहः समन्ततः। [चतुःषष्टिः सहस्राणि योजनानां] विधीयते ५३ स पर्वतो महान्दिव्यो दिव्यौषधिसमन्वितः । नैवभुरावृतः सर्वो जातरूपमयैः शुभैः तत्र देवगणाः सर्वे गन्धर्वोरगराक्षसाः । शैलराजे प्रदृश्यन्ते शुभश्चाप्सरसां गणः स तु मेरुः परिवृतो भुवनं भूतभावनैः। चत्वारो यस्य देशा वै नानापाश्र्वेष्वधिष्ठितः भद्रश्वो भरतश्चैव केतुमालश्च पश्चिमः । उत्तरा कुरवश्चैव कृतपुण्यप्रतिश्रयाः ५४ ५५ ।।५६ ५७ पखड़ी की तरह चार विख्यात महद्दप उसके चारों ओर हैं और बीच मे ( पत्र केशर ) महबली मेरु कणका की तरह है। मेरु का पाश्वं प्रदेश नना वण का है । पूर्वं में श्वेत, दक्षिण में पीत, उत्तर में रक्त और शिखर में कृष्घ वर्ण है । इस प्रकार शोभा बढाने वाले वर्षों से समन्वित होकर स्त्रयं शुभ्र’वणं का मेरु राजा की तरह वर्तमान है ।४६-४८। उसकी कान्ति बल सूर्य की तरह चमक रही है, जान पड़ता है कि, जैसे बिना धुएँ की आग हो । वह चौरासी हजार योजन ऊंचा कहा गया है। इसका विस्तार सोलह योजनों का है और उतने ही परिमाण में यह पृथ्वी में भी प्रविष्ट है । इसके मस्तक का विस्तार बारह योजनों का है और पूरव की ओर यह वाण के रूप में दीख पड़ता है । इसके चारो ओर की परिधि इसके विस्तार से तीन गुनी अधिक है । मण्डल के प्रमाण से इसके मूर्धज आधे है। उस त्रिकोण शिखर का परिमाण अड़तालीस हजार योजन है ।४६५२। चारों ओर इसका विस्तार चौसठ हजार योजन है। यह पर्वत अत्यन्त दिव्य है । दिव्यौ- षधियों से युक्त और सुन्दर सुवर्णमय भुवनो से घिरा हुआ है । ५३-५४। उस शैलराज के ऊपर सुन्दरी अप्सराओं के गण, सभी देवगण एवं गन्धर्व, उरग रक्षसादि देखे जाते हैं । वह मेरु जीवों की सृष्टि करने वाले भुवनों से घिरा हुआ है एवं उनके चारों ओर चार देश बसे हुये है । उनके नम ये हैं --भद्राश्त्र भरत, पश्चिम, केतुमाल और उत्तर कुरु । इस उत्तर कुरु में पुण्यवान् लोग रहा करते हैं ।५५-५७। चारो ओर से

  • धनुश्चिह्न्तर्गतग्रन्थो ङ. पुस्तके नास्ति । ’घतुश्चिह्न्तर्गतग्रन्थः ख. पुस्तके नास्ति ।