त्रिशोऽध्यायः २१३ ।।४४ ॥४५ ततोऽब्रवीत्स पितरं देवी नोधदम्षता । यवीयसीभ्यो ज्यायसीं किंतु पूजामिमां प्रभो ।। असंमतामवज्ञाय कृतवानसि गर्हिताम् अहं ज्येष्ठा वरिष्ठा हि न त्वसङ्कर्तुमर्हसि । एवमुक्तोऽब्रवीदेनां दक्षः संरक्तलोचनः त्वं तु श्रेष्ठा वरिष्ठा च पूज्या बाला सदा मम । तासां ये चैव भर्तारस्ते मे बहुमता सदा ॥४६ ब्रह्मिष्ठाश्व तपिष्ठाश्च महायोगाः सुधामकाः । गुणैश्चैवाधिकः श्लाघ्याः सर्वे ते त्र्यम्बकत्सति ॥४७ वसिष्ठोऽत्रिः पुलस्त्यश्च अङ्गिराः पुलहः क्रतुः । भृगुर्मरीचिश्च तथा श्रेष्ठा जामातरो मम ॥४८ तस्याऽऽत्मा स च ते शवों भक्ता चासि हितं सदा । तेन त्वां न बुभूषसि प्रतिकूलो हि मे भवः ॥४e इत्युवाच तदा दक्षः संप्रमूढेन चेतसा। शापार्थमात्मनश्चैव ये चोक्ताः परमर्षयः ५० तथोक्ता पितरं सा वै क्रुद्ध देवीदमब्रवीत्। वामनः कर्मभिस्माददुष्टां मां विगर्हसे ।। तस्मात्त्यजाम्यहं देहमिदं तात तवाऽऽत्मजम् ५१ ततस्तेनावमानेन सती दुःखादऑषता । अवीद्वचनं देवी नमस्कृत्वा (त्य) महेश्वरम् ५२ यत्राहमुपपत्स्येऽहं पुनर्देहेन भास्वता । तत्राप्यहमसंमूढा संभूता धासकी पुनः । गच्छेयं धर्मपत्नीत्वं त्र्यम्बकस्यैव धर्मतः ५३ पहुँची हुई हैं, तो वह भी बिना बुलावे के ही वहाँ पहुँच गयी। सती वहाँ पहुँची तो सही; लेकिन पिता ने उनका वेसा सत्कार नहीं किया, जैसा कि उनकी ओर बहनों का किया था। क्रोध से तमक कर सती ने पिता से कहा-तात ! आप छोटी बहनों का तो बडा सत्कार कर रहे हैं, किन्तु मेरा निरादर कर रहे हैं ।४३-४४ । मैं सब बहनों से वडी हू इसलिये निरादर के योग्य नहीं हो सकती । यह सुनते ही लाललाल झाँखें करके दक्ष ने सती से कहा "यह सत्य है कि तू मेरी ज्येष्ठ, श्रेष्ठ और आदरणीय पुत्री हो; किन्तु में अपनी और लडकियों के पतियों को बहुत अच्छा समझता हूँ । इसलिये कि वे सब के सब महादेव से ज्यादा गुणी प्रशंसनीय, धार्मिक, महायोगी तपस्वी ओर ब्रह्मकर्म को जानने वाले हैं । वसिष्ठ, पुलस्त्य, अङ्गिरा, पुलह, ऋतु, भृगु और मरीचि आदि मेरे अच्छे जामाता हैं ।४५४८। महादेव मेरे विरुद्ध हैं और तू उन्हीं की आमा हो, एवं उनकी ही सेवा करती हो; इसलिये मैं तेरा सत्कार नहीं कर सकता । मूढचित्त दक्ष ने शाप पाने की इच्छा से सती से इस प्रकार कहा । परमषिगण भी ऐसा ही समझते है ।४६५०। यह सुनते ही सती ने क्रुद्ध होकर पिता से कहा-मन, वचन और कमें से में पवित्र है, फिर भी आप मेरा तिरस्कार करते हैं । इसलिये आपके द्वारा जो यह मेरा शरीर उत्पन्न हुआ है, उसे ही में छोड़ देती हैं । उस अपमान से सती को बड़ा दुःख हुआ । उस्रने मन ही मन महादेव को प्रणाम करके कहा—५१५२मैं जहां कहीं अपने इस तेजस्वी शरीर से जन्म ग्रहण करूगे, वह बिना किसी मोहमाया में से ऐसा धर्माचरण कलँगी,