पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१६६

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

त्रयोचिशोऽध्यायः १४७ ७४ ७७ MI७८ यदा तु पुनरेवायं कृष्णवर्णा भयानकः। मत्कृतेन च वर्णेन मत्कल्पः कुष्ठणं उच्यते तत्राहं कालसंकाशः कालो लोकप्रकाशनः । विज्ञातोऽहं त्वया ब्रह्मन् घोरो घोरपराक्रमः ७५ तस्माद्विश्वत्वमापनं ये मां वेत्यनित भूतले । तेषामघोरः शान्सव भविष्याम्यहमव्ययः ७६ तस्माद्विश्वत्वमापन्नं ये मां पश्यन्ति भूतले । तेषां शिवश्च सौम्यश्च भविष्यामि सदैव तु तस्माच्च विश्वरूपो वै कल्पोऽयं समुदाहृतः । विश्वरूपा तथा चेयं सावित्री समुदाहृत सवरूपस्तथा चे मे संवृत्तां मम पुत्रकाः । चत्वारस्ते समाख्याताः पाद वै लोकसंमताः ७६ तस्माच्च सर्ववर्णत्वं प्रजात्व मे भविष्यति । सर्वभक्ष्या च मेध्या च वर्णतश्च भविष्यति ।।८० मोक्षो धर्मस्तथाऽर्थश्च कामश्चेति चतुष्टयम् । तस्माद्वेत्ता च चंचं च चतुर्धा वै भविष्यति ॥ ८१ भूतग्रामश्च चत्वर आधश्चस्तु(त्वा)रस्तथा। धर्मस्य पादाश्चत्वारश्चत्वारो मम पुत्रकाः ॥८२ तस्माच्चतुर्युगावस्थं जगठं सचराचरम्। चतुर्धाऽवस्थितं चैव चतुष्पादं भविष्यति ८३ भूर्लोकोऽथ भुवर्लोकः स्वर्लोकोऽथ महस्तथा । जनस्तपश्च शान्तश्च रुद्रलोकस्ततः परम् ८४ (+अष्टाक्षरः स्मृतो लोकः स्थाने स्थाने तदक्षरम् । भुवं दिवं परं चैव पादाश्चत्वार एव च ॥८५ कृष्ण वर्ण का हुआ, तब हमारे परिवर्तित वर्ग के अनुसार वह कल्प कृष्णकल्प कहलाया ।७४उस समय हम लोकप्रकाशक काल के समान काल कहलाये । ब्रह्मन् ! आपने हमें घोर पराक्रमी घोर समझा । इसलिये पृथ्वी- तल मे जो हमें घोराकार से जानेगे - उनके निमित्त हम सदैव अघोर, अव्यय और शान्त रूप से विराजमान रहेगे । इस प्रकार भूतल में जो हमारा विश्वरूप से दशन करेंगे, उनके लिये हम सदा शिव और सौम्य होकर वर्तमान रहेगे I७५-७७। इसलिये यह कल्प विश्वरूप के नाम से प्रसिद्ध हुआ है और इस सावित्री का भी नाम विश्वरूपा हुआ है ।७८। हमें सर्वरूप नामक उस समय चर पुत्र उत्पन्न हुये । वे चारों पुत्र धर्म के लोकसम्मत चतुष्पद स्वरूप है। इसके अनन्तर हमें नाना वर्णत्व और प्रजात्व हुआ अर्थात् बहुविध पुत्र उत्पन्न हुये, जिनमें वर्णानुसार आगे चलकर कोई सर्वभोगी और कोई पवित्र हुये -। मोक्ष, धर्म, अर्थ, काम I७६८० ये ही चार पुत्र हैं ।८१-८२। इन्ही से वेत्ता और वंद्य भी चार प्रकार के होते है। भूतग्राम चार ओर चतुराश्रम भी धर्म के चार पाद स्वरूप एवं हमारे चार पुत्र है । सचराचर जगत् इसलिये यह चतुर्युगावस्था में अवस्थित और चार भागों में विभक्त है । भूलकभुवर्लोक, स्वर्लोक, महलकजन, तप और सत्य लोक एवं इसके ऊपर भी रुद्रलोक, ये ही आठ लोक है, जिनमे कोईकोई क्षयशील भी हैं। भूलक और स्वर्लोक प्रभृति के हैं ।८३-८५। उनके मध्य मूलक प्रथम पाद, भुवलोंक द्वितीय स्थान है, यही योगियो के चार पाद + धनुश्चिह्नान्तर्गतग्रन्यः क. ग• पुस्तकयोर्नास्ति ।