पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१४७

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१२८ अथैकविंशोऽध्यायः कट्वनिरूपणम सूत उवाच ऋषीणामग्निकल्पानां नैमिषारण्यवासिनाम् । ऋषिः श्रुतिधरः प्राज्ञः सार्वाणिर्नाम नामतः ॥१ तेषां सोऽप्यग्रतो भूत्वा वायं वाक्यविशारदः । सातत्यं तत्र कुर्वन्तं प्रियायै सत्रयाजिनाम् २ विनयेनोपसंगम्य पप्रच्छ स महाद्युतिम् सावर्णिरुवाच ॥३ ४ विभो पुराणसंबद्धां कथां वै वेदसंमिताम् । श्रोतुमिच्छामहे सम्यक्प्रसादात्सर्वदशनः हिरण्यगर्भा भगवाँल्ललाटान्नललोहितम् । कथं तत्तैजसं देवं लब्धवान्पुत्रमात्मनः कथं च भगवाञ्जज्ञे ब्रह्मा कमलसंभवः । रुद्रत्वं चैव शर्वस्य स्वात्मजस्य कथं पुनः कथं च विष्णो रुद्रेण साधं प्रीतिरनुत्तमा। सर्वे विष्णुमया देवा सर्वं विडणमया गणाः ५ ६ अध्याय २१ कल्प निरूपण सुतजी बोले-नैमिषारण्य में रहने वाले अग्नितुल्य ऋषियों के बीच सावणि नाम के एक वेदज्ञ पण्डित ऋषि थे । वोलने में चतुर होने के कारण सव ऋषियों से आगे बढ़ कर उन्होंने विनयपूर्ण, अत्यन्त कान्तिवाले वायु से सत्रयाज्ञिकों के कल्याण के लिये पूछ ।१-२॥ सावर्णि बोले—प्रभो ! आप सर्वदर्शी है । आपके प्रमाद से हम वेदतुल्य पौराणिक कथा को अच्छी तरह से सुनना चाहते हैं। भगवन् हिरण्यगर्भ ने अपने ललाट से अत्यन्त तेजस्वी नीललोहित देव को किस प्रकार पुत्र रूप में प्राप्त किया ? ॥३-४। कमलयोनि ब्रह्मा किस प्रकार उत्पन्न हुये ? ब्रह्मानन्दन नीललोहित को रुद्रत्व किस प्रकार प्राप्त हुआ ? रुद्र के साथ विष्णु की उत्तम प्रति किस प्रकार हुई ? ‘सभी देवता विष्णुमय हैं, सभी गण विष्णुमय हैं, विष्णु के समान कोई दूसरी गति नहीं है' देवगण सदैव ऐसा निःसंदिग्ध