पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१४५

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१२६ TO अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वः प्रजाः सृजमानां स्व(स)रूपाम्(पः)। अजो ह्म को जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः २८ अष्टाक्षरं षोडशपाणिपादां चतुर्मुखीं त्रिशिखामेकशृङ्गम् । आद्यामजां विश्वसृजां स्वरूपां ज्ञात्वा बुधास्त्वमृतत्वं व्रजन्ति । ये ब्राह्मणाः प्रणवं वेदयन्ति न ते पुनः संसरन्तीह भूयः २६ इत्येदक्षरं ब्रह्म परमोंकारसंज्ञितम् । यस्तु वेदयते सम्यक्तथा ध्यायति वा पुनः ३० संसारचक्रमुत्सृज्य मुक्तबन्धनबन्धनः। अचलं निर्गुणं स्थानं शिवं प्राप्नोत्यसंशयम् ३१ इत्येतद्वै मया प्रोक्तमोंकारप्राप्तिलक्षणम् ॥३२ नमो लोकेश्वराय संकल्पकल्पग्रहणाय महान्तमुपतिष्ठते तद्वो हितं यद्ब्रह्मणे नमः । सर्वत्रस्थानिने निर्गुणाय संभक्तयोगीश्वराय च। पुष्करपर्णमिवाद्विशुद्धमिव ब्रह्ममुपतिष्ठेत्पवित्रं(?) पवित्राणां पवित्रं पवित्रेण परिपूरितेन पबित्रेण हस्वं दोषीप्लुतमिति तदेतमोंकारमशब्दम स्पर्शमरूपमरसमगन्धं पर्युपासे(सी)त, अविवेशानाय विधरूपो न तस्य, अविद्येशानाय नमो योगीश्वरायेति च येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा येन स्वः स्तभितं येन नाकस्तयोरन्तरिक्षभिमे वरीयसो देवानां हृदयं विश्वरूपो न तस्य प्राणापानौपम्यं चास्ति ओंकारो बिश्वविधो वै यज्ञो यज्ञो वै वेदो वेदो वै नमस्कारो नमस्कारो रुद्रो नमो रुद्र (य योगेश्वराधिपतये नमः । वर्ण की है और अपनी ही तरह अनेक प्रजाओं को उत्पन्न करने वाली है । जीव रूप एक अज उस अजा से मिलकर शयन करता है अर्थात् उसका उपभोग करता है; किन्तु दूसरा शिव स्वरूप अज उसे उपभुक्त समझ कर छोड़ देता है । वह प्रकृति स्वरूपा आदि अजा आठ अक्षरों वाली, सोलह पाणिपादोंवाली, चतुर्मुखी, शिखविहीन या विशिष्ट शिखत्राली, एक शुङ्गवाली और संसार का सृजन करने वाली है । इसके स्वरूप को जानकर पंडित अमृतत्व प्राप्त करते हैं, जो ब्राह्मण प्रणव को जानते है, वे पुनः संसरन्याशा नहीं करते है ।२७-२८। यह ओकार रूप अक्षर ब्रह्म है । इसका जो ध्यान करता है और जो इसे समझता है, वही सभी बन्धनों से मुक्त होकर और संसार के आवागमन से रहित होकर निश्चय ही अचल, निर्गुण शिवस्थान को प्राप्त करता है। वह हमने ओकार प्राप्ति का लक्षण बताया है 1३०३२ ॥ सर्च सङ्कल्पाभिज्ञ लोकेश्वर को . नमस्कार है । उसी महात्मा की उपासना करनी चाहिये। उसी ब्रह्म को प्रणाम करना आम लोगों के लिये हितकर है । सर्वव्यापी, निर्गुण, भक्त योगियों के लिये ऐश्वर्यदाता, जलयुक्त परन्तु अलिप्त उससे कमलपत्र की तरह शुद्ध प्रह्म की उपासना करनी चाहिये । पविशो के बीच पवित्र, अतिशय पवित्र, पवित्रता से पूर्ण। हस्व, दीर्घ, प्लुतमाश्राविशिष्ट, शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्धवजित ओकार की उपासना करनी चाहिये । अविद्या