पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१३५

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११६ युg अथाष्टादशोऽध्यायः यतिप्रायश्चित्तविधिकथनम् घायुरुवाच ४ अतः ऊर्वं प्रवक्ष्यामि यतीनामिह निश्चयम् । प्रायाश्रितानि तत्त्वेन यान्यकामकृतानि तु : . ॥१ अथ कामकृतेऽप्याहुः सूक्ष्मधर्मविदो जनाः । पापं च त्रिविधं प्रोक्तं वाङ्मनः कायसंभवम् - ॥२ सततं हि दिवा रात्रौ येनेदं बध्यते जगत् । न कर्माणि न चाप्येष तिष्ठतीति परा श्रुतिः ३ क्षणमेव प्रयोज्यं तु आयुषस्तु तु विधारणात् । भवेद्धीरोऽप्रमत्तस्तु योगो हि परमं बलम् । न हि योगात्परं किंचिन्नराणामिह दृश्यते । तस्माद्योगं प्रशंसन्ति धर्मयुक्ता मनीषिणः ५ अविद्यां विद्यया त्वं प्राप्यैश्वर्यमनुत्तमम् । दृष्ट्वा परापरं धीराः परं गच्छन्ति तत्पदम् ६ व्रतानि यानि भिभूणां तथैवोपव्रतानि च । एकैकापक्रमे तेषां प्रायश्चित्तं विधीयते उपेत्य तु स्त्रियं कामात्प्रायश्चित्तं विनिदिशेत् । प्राणायामसमायुक्तं कुर्यात्सांतपनं तथा ७ ८ अध्याय १८ यतियों का प्रायश्चित्तविधान कथन वायु बोले- इसके बाद अब मैं यतियो,के प्रायश्चित्त को यथार्थ रूप से कह रहा हूँ । सूक्ष्म धर्म जानने वालो ने काम कृत और अकाम् कृत दोनों ही पापों के लिए प्रायञ्चित्त कहा है । मन, वचनं ओर शरीर से उत्पन्न होने वाले पाप तीन प्रकार के हैं ।१-२ । इसी त्रिविध पाप से यह संसार दिन रात सदा हुँघा रहता है । परा (उच्च) भृति का ऐसा कथन है कि या कर्मवद्ध सत्य नहीं है! जीवन- कमसमूह संसार। काल पाप क्षण लिये है, आते हैं, अतः आयुष्काल में जीवगणों को सवंद घर और सावधान मे ये भर के ि होना चाहिये; क्योकि योग ही पर बल है।४। मनुष्यों के लिये योग से उत्कृष्ट दूसरा कुछ नहीं है, इसलिये धमिष्ठ विद्वानो ने की की ,योग प्रशंसा है । धीर व्यक्ति विद्या की सहायता से अविद्या को पार कर (दूर कर) अनुत्तम ऐश्वर्य का लाभ करते हुए प-अपर का प्रत्यक्ष करते है और पूरम, पद को प्राप्त करते हैं । सन्यासयों के लिये जो व्रत निर्धारित हैं, उनमें एक का भी त्याग करने से प्रयश्चित्त करना " पड़ता है |५-७। संन्यासी अगर कामवश स्त्री-प्रसङ्ग कर ले, तो प्रायश्चित्त करना होगा। ऐसी दशा में प्राणायाम